जो ज्ञान अनुपयोगी है। वह विज्ञान नहीं हो सकता। ब्रह्माण्ड में कुछ भी अनुपयोगी नहीं होता। इसके बाबजूद ब्रह्माण्ड में सब कुछ विज्ञान के अंतर्गत नही आता। अर्थात वह वैज्ञानिक गुणों से परिपूर्ण नहीं होता।
जब ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति का समय अर्थात ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति आज से कितने वर्ष पूर्व हुई है ? ब्रह्माण्ड की नियति अर्थात ब्रह्माण्ड के अंत की प्रक्रिया से लेकर ब्रह्माण्ड की आयु तक को निर्धारित कर सकता है। तो क्या मनुष्य के जन्म का समय मनुष्य की नियति निर्धारित नहीं कर सकता ? जब हम स्पर्म का अध्ययन करके होने वाले बच्चे की शारीरिक बनावट को निर्धारित कर सकते हैं। शरीर के अंगों की बनावट के आधार पर जीव की विशेषताओं को निर्धारित कर सकते हैं। तो क्या मनुष्य के "जन्म का समय" और स्थान के आधार पर मनुष्य की शारीरिक बनावट और उसकी विशेषताओं को निर्धारित नहीं कर सकते ? इस तरह के बहुत से तर्क आज भी समाज में पढ़ने-सुनने को मिलते हैं। और ऐसा भी नहीं है कि इस तरह के तर्क सिर्फ अनपढ़ लोगों द्वारा दिए जाते हैं। अच्छी तरह से शिक्षित व्यक्तियों के मुख से भी ऐसे तर्क सुनने को मिलते हैं। समस्या सिर्फ इस बात की है कि "ज्योतिष को विज्ञान की तरह समाज के सामने रखा जाता है।" "ज्योतिष को विज्ञान कहा जाता है।" ज्योतिष को विज्ञान मानने की हमारी यह धारणा पूर्णतः गलत है। परन्तु क्यों ? जबकि ज्योतिष की भविष्यवाणियाँ सच भी तो निकलती हैं। तो फिर ज्योतिष, विज्ञान क्यों नहीं है ? आइये इस विषय पर विस्तार से चर्चा करते हैं।
सबसे पहले तो हमें ज्योतिष से सम्बंधित उन सभी उभयनिष्ठ बिन्दुओं की जानकारी होना चाहिए। जिनके बारे में हम लगभग सभी ज्योतिषियों से सुना करते हैं। एक ज्योतिषी जन्म स्थान, समय और जन्मदिन को सुनिश्चित करते हुए, विश्लेषण करने के उपरांत अपने निष्कर्षों को लोगों के सामने लाता है। इन सब निष्कर्षों तक पहुँचने के लिए वह कुंडली का निर्माण ग्रहों की स्थिति को निर्धारित करने के लिए करता है। कुंडली के माध्यम से एक ज्योतिषी मनुष्य के जीवन के उतार-चढ़ाव से लेकर उसकी मृत्यु तक को निर्धारित करता है। जीवन के इस उतार-चढ़ाव में मनुष्य का व्यवसाय, उसका स्वास्थ्य, पारिवारिक जीवन और उसका व्यक्तिगत विकास इन सभी पहलुओं पर एक ज्योतिषी अपने निष्कर्ष लोगों के सामने रखता है। जन्म कुंडली का सबसे अधिक उपयोग जीवन के उस मोड़ पर होता है। जब मनुष्य अपने जीवन साथी की तलाश में लगा होता है। तब लड़का और लड़की की जन्मकुंडली का मेल 36 गुणों के आधार पर किया जाता है। ताकि उनका पारिवारिक जीवन सुखी व्यतीत हो। जन्म कुंडली में कई तरह के योग बनते हैं। जो मनुष्य के विकास या पतन के काल के लिए जिम्मेदार होते हैं। जिनमें कालसर्प योग, साढ़े-साती और ढ़ैया प्रमुख हैं।
सबसे पहले तो हमें ज्योतिष से सम्बंधित उन सभी उभयनिष्ठ बिन्दुओं की जानकारी होना चाहिए। जिनके बारे में हम लगभग सभी ज्योतिषियों से सुना करते हैं। एक ज्योतिषी जन्म स्थान, समय और जन्मदिन को सुनिश्चित करते हुए, विश्लेषण करने के उपरांत अपने निष्कर्षों को लोगों के सामने लाता है। इन सब निष्कर्षों तक पहुँचने के लिए वह कुंडली का निर्माण ग्रहों की स्थिति को निर्धारित करने के लिए करता है। कुंडली के माध्यम से एक ज्योतिषी मनुष्य के जीवन के उतार-चढ़ाव से लेकर उसकी मृत्यु तक को निर्धारित करता है। जीवन के इस उतार-चढ़ाव में मनुष्य का व्यवसाय, उसका स्वास्थ्य, पारिवारिक जीवन और उसका व्यक्तिगत विकास इन सभी पहलुओं पर एक ज्योतिषी अपने निष्कर्ष लोगों के सामने रखता है। जन्म कुंडली का सबसे अधिक उपयोग जीवन के उस मोड़ पर होता है। जब मनुष्य अपने जीवन साथी की तलाश में लगा होता है। तब लड़का और लड़की की जन्मकुंडली का मेल 36 गुणों के आधार पर किया जाता है। ताकि उनका पारिवारिक जीवन सुखी व्यतीत हो। जन्म कुंडली में कई तरह के योग बनते हैं। जो मनुष्य के विकास या पतन के काल के लिए जिम्मेदार होते हैं। जिनमें कालसर्प योग, साढ़े-साती और ढ़ैया प्रमुख हैं।
विज्ञान की पहचान दो चरणों में सम्पन्न होती है।
और तब हम उस विज्ञान को सम्यक ज्ञान के रूप में स्वीकारते हैं। अर्थात एक निश्चित समय के लिए वह ज्ञान समाज में विज्ञान के रूप में स्वीकारा जाता है। और जब समय के साथ मानव जाति की सोच विकसित होती है। तब हम पुरानी गलत अवधारणाओं को त्याग देतें हैं। मानव समाज ने विज्ञान का इसी तरह से उपयोग किया है। यदि वास्तव में कोई गलती या चूक समझ में आती है। तो गलती को स्वीकार के उसे सुधारना, मानव जाति ने विज्ञान से सीखा है।
ज्योतिष, विज्ञान की पहचान के पहले चरण की शर्त को पूरा करने का दावा तो पेश करता है। परन्तु वैज्ञानिकों के अनुसार ज्योतिष जिन कारकों की पहचान घटक के रूप में सामने रखता है। वे घटक वास्तव में कारक हो ही नहीं सकते। क्योंकि कुंडली बनाने में जिन राशि चक्र के तारों की स्थिति का ज्ञान होना आवश्यक है। वे नक्षत्र तारे और यहाँ तक की सूर्य भी पृथ्वी के बहुत से स्थानों पर छः महीनों में कभी भी ऊर्ध्वाधर नहीं होता है। उदाहरण के लिए रूस में स्थित मुमार्नस्क जैसे बड़े शहरों में सूर्य का प्रकाश छः महीनों में कभी नहीं पहुंचा। फिर तो उन शहरों में जन्मे लोगों की जन्म कुंडली नहीं बनाई जा सकती। यह केवल एक तर्क है। जो सूर्य और नक्षत्रों की स्थिति के तथ्यों से निर्मित है। तर्क देने का सिर्फ इतना सा मकसद है कि ज्योतिष जिन नक्षत्रों की स्थिति का जन्म कुंडली बनाने में उपयोग करता है। उन नक्षत्रों की स्थिति को वैज्ञानिक समुदाय कारक के रूप में नहीं देखता। यानि की ज्योतिष दावा तो पेश करता है। परन्तु उनका यह दावा स्वीकारने योग्य नहीं है। क्योंकि ज्योतिष चन्द्रमा को ग्रह के रूप में परिभाषित करता है। जबकि वैज्ञानिक समुदाय चन्द्रमा को उपग्रह के रूप में परिभाषित करता है। इस तरह से कारकों की प्रकृति को लेकर ज्योतिष और वैज्ञानिकों में बहुत से मतभेद हैं। जिनके आधार पर ज्योतिष और विज्ञान मेल नहीं खाते। इसके बाबजूद यदि ज्योतिष दूसरे चरण की शर्त को पूरा कर देता है। तब वैज्ञानिक समुदाय को मजबूरन ज्योतिष को विज्ञान के रूप में स्वीकारना होगा। और पहले चरण की शर्त की सत्यता भी स्वीकारनी होगी।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने सन 2000 में इस विषय पर अध्ययन और अन्वेषण करने के लिए सरकार से अनुदान देने की अनुशंसा की। वैज्ञानिकों के विरोध के बाद ज्योतिष विषय को विज्ञान संकाय से तो हटा लिया गया। परन्तु ज्योतिष को वैदिक ज्ञान की संज्ञा दे दी गई। वास्तविकता यह है कि ग्रह-नक्षत्रों की स्थिति और जन्म कुंडली का यह ज्ञान वेदों में वर्णित नही है। बल्कि फलित ज्योतिष का यह ज्ञान यूनान और बेबीलोन देशों से होते हुए भारत आया। और इसी देश का होकर रह गया। यूनानियों ने ग्रहों को "प्लेनेट" यानि की भटकने वाला कहा। क्योंकि उस समय के ज्ञान के अनुसार ग्रह जैसे सभी आकाशीय पिंडों की गति तारों की स्थिति से बिलकुल भिन्न मालूम पड़ती थी। ग्रहों के सन्दर्भ में तारों की गति पृथ्वी से बहुत अधिक दूर और व्यापक पैमाने में स्थिर होती है। पृथ्वी अन्य ग्रहों की तरह सूर्य जैसे विशालकाय तारे की परिक्रमा करती है। फलस्वरूप हम अन्य सभी ग्रहों और सूर्य की कक्षीय गति का अनुमान आसानी से नहीं लगा सकते। इन तीनों तथ्यों से मिलीजुली सौरमण्डलीय संरचना का चित्रण उस समय के मनुष्यों की सोच को सीमित और बाध्य कर रहा था। इसलिए यूनानियों ने ग्रहों को भटकता हुआ आकाशीय पिंड माना, न की कक्षीय गति करता हुआ आकाशीय पिंड कहा। साथ ही सूर्य-ग्रहण और चन्द्र-ग्रहण ने मनुष्य को इस भ्रम को उचित मानने के लिए प्रमाण दे दिए। ग्रहों और सूर्य के इस मनमाने भटकाव ने लोगों को यह सोचने के लिए बाध्य किया कि ग्रहों और सूर्य की न ही एक निश्चित गति और न ही उनका एक निश्चित पाथ है। इसलिए हमें उनके इस व्यव्हार और आकाशीय शक्ति से बचने की आवश्यकता है। फलस्वरूप हमें ग्रहों की स्थिति के विशेष संयोग के प्रभाव से सतर्क रहना पड़ेगा। तब जाकर ज्योतिष का अध्ययन ग्रहों की स्थिति के विशेष संयोग के प्रभावों को निर्धारित करने के लिए प्रारम्भ हुआ। न की ग्रहों की स्थिति के संयोग के समय को निर्धारित करने के लिए ज्योतिष का अध्ययन प्रारम्भ हुआ। इसलिए इन प्रभावों से बचने के लिए तरह-तरह के टोटके सुझाए जाने लगे। और यहाँ तक की सूर्य जो एक तारा है को ज्योतिष में एक ग्रह माना गया। इस गद्यांश को अच्छे से पढ़ने पर आपको उस समय के लोगों की सोच में एक कमी महसूस होती हुई नज़र आती है। जो आज के मनुष्यों में नहीं पाई जाती। और वो यह है कि यदि अनियमित रूप से कोई आकाशीय पिंड गति कर रहा है। तो बेशक हमें उस आकाशीय पिंड से सतर्क रहने की आवश्यकता है। परन्तु हम उस आकाशीय पिंड की अनियमित गति से यह निष्कर्ष कदापि नहीं निकाल सकते हैं कि वह आकाशीय पिंड हमसे कब आकर टकराएगा ? उसका हम पर क्या प्रभाव पड़ेगा ? जिससे की हमारा अंत होगा ? इसलिए उस समय का यह ज्योतिष अर्थहीन है। आप स्वयं सोचिये जिसकी प्रकृति ही अनियमित हो ! हम उसके व्यव्हार, प्रभाव या उसकी गति को कैसे निर्धारित कर सकते हैं ?
ऊपर लिखा गया सूत्र विज्ञान संकाय की पुस्तकों में आज भी पढ़ने को मिलता है। जिसके अनुसार मनुष्य जिन चीजों को आभास करता है। उनमें से जितने हिस्से को वह समझ पाता है। जिसका वह उपयोग करता है। उसे वह वास्तविक मानता है। बांकी शेष को वह छद्म कहता है। मनुष्यों ने अपने बौद्धिक विकास के इस क्रम में छद्म ज्ञान की हिस्सेदारी को पूर्व मनुष्यों के ज्ञान की अपेक्षा अधिक कम किया है। और मनुष्य अपने आप में यह परिवर्तन सतत कर रहा है। छद्म बल को बल की श्रेणी में रखा जाता है। चूँकि इस परिस्थिति में न्य़ूटन के गति के नियम लागू नहीं होते हैं। और यह अजड़त्वीय निर्देशित तंत्र में लगता है। इसलिए इसे ज्ञात करने के कोई मायने नहीं रह जाते। ठीक इसी प्रकार ज्योतिष में विश्वास न करने के कई कारण हैं। ज्योतिष को छद्म विज्ञान तो कहा जाता है। परन्तु वह वास्तव में विज्ञान नहीं कहलाता। अर्थात वह ज्ञान वर्तमान मनुष्य की समझ से पर है। परन्तु यह जरुरी नहीं है कि वह ज्ञान सत्य ही हो ! जिस प्रकार अजड़त्वीय निर्देशित तंत्रों में न्य़ूटन के गति के नियम लागू नहीं होते हैं। ठीक उसी तरह से ज्योतिष में उभयनिष्ठ पूर्वानुमानों और नियमों का आभाव होता है। ज्योतिष को गिने-चुने नियमों और सिद्धांतों में नहीं बाँधा जा सकता। हर ज्योतिषी के अपने अलग नियम और सिद्धांत होते हैं। जिनके आधार पर वे कुंडली की सहायता से निष्कर्ष तक पहुँचते हैं।
ऐसा नहीं है कि ज्योतिष काम नहीं करता। उसकी भविष्यवाणियाँ सच नहीं होती। परन्तु 45 से 54 प्रतिशत सही होने की सम्भावना पर मानव जाति कैसे विश्वास कर सकती है ? जिस कार्यों में करोड़ो-अरबों रूपये फसे होते हैं। उन कार्यों के लिए ज्योतिष में विश्वास करना सबसे बड़ी भूल होती है। आज से सात वर्ष पहले प्रो. जयंत विष्णु नार्लीकर जी की देखरेख में बर्नी सिल्व्हरमन के प्रयोगों को जब पुणे स्थित खगोलीय विज्ञान और खगोलीय भौतिकी केंद्र द्वारा कार्यक्रम रूप में संपन्न किया गया। तब सबसे उत्तम निष्कर्ष जो सामने आया था। वह 40 प्रश्नों में से 22 प्रश्नों के उत्तर सही होने का था। बांकी सभी 27 ज्योतिषियों का औसत निष्कर्ष 40 में से 18 प्रश्नों के सही उत्तर होने का था। इसके अलावा इस कार्यक्रम में ज्योतिषियों की एक संस्था ने भी भाग लिया था। जिन्हे 200 जन्म कुंडलियाँ दी गईं। जिनमें से सिर्फ 102 निष्कर्ष ही वास्तविकता से मेल खाए। जबकि इस कार्यक्रम में संस्था ने सिर्फ 58 प्रतिशत सत्यता आने की सम्भावना रखी थी। जो पूरी नहीं हो पाई। वैसे भी एक सिक्के को ऊपर उछालने के बाद चिट या पट आने की सम्भावना 50 प्रतिशत होती है। ठीक उसी तरह किसी भी काम के पूर्ण होने या न होने की सम्भावना भी स्वभाविक रूप से 50 प्रतिशत होती है। तो फिर ज्योतिष में क्या विशेष है ? बेशक, ज्योतिष काम करता है। परन्तु उसको विज्ञान की श्रेणी में रखना या कहना गलत है।
इस सब के बाबजूद प्रो. जयंत विष्णु नार्लीकर जी ज्योतिष को वैज्ञानिक अथवा अवैज्ञानिक घोषित करने के विषय में कहते हैं "जिस प्रकार रोग की पहचान किये बिना परिक्षण के लिए दवा देना वैज्ञानिक दृष्टिकोण नही है। उसी प्रकार बिना परिक्षण के फलित ज्योतिष को अवैज्ञानिक घोषित करना भी युक्ति संगत नहीं है।" ज्योतिष का यह ज्ञान सदियों से चला आ रहा है। यदि परिक्षण करने के उपरांत उसमें संशोधन की आवश्यकता मालूम होती है। तब तो उसमें संशोधन किया जाना चाहिए। अन्यथा समाज को उसका बहिष्कार करना चाहिए। क्योंकि देश को इससे समय और धन दोनों की हानि उठानी पड़ती है।
वैज्ञानिक युग के इस समाज में ज्योतिष के बने रहने के निम्न कारण हैं :
विनम्र निवेदन : यह सोचकर के दूसरों की खिल्ली उड़ाना सबसे बड़ी बेवकूफी है कि "सामने वाला व्यक्ति भ्रमित है।" आज आप में जो समझदारी दिख रही है। वो इन्ही जैसों के भ्रम में जीने के कारण है। जो आज आप समझदार हो। भ्रम से छुटकारा यूँ ही नहीं मिल जाता। इसमें समय लगता है। जिसके लिए इंतज़ार करना पड़ता है। कुछ भ्रम से उबरने में तो पीढ़ियां बीत जाती हैं। परन्तु खिल्ली उड़ाना, न ही अच्छी बात होगी और न ही यह अंतिम विकल्प है। आशा है कि आप अपने शिक्षित होने का प्रमाण देंगे। और हमारे इस निवेदन का मान बढ़ाएंगे। शुक्रिया..
ज्योतिष, विज्ञान की पहचान के पहले चरण की शर्त को पूरा करने का दावा तो पेश करता है। परन्तु वैज्ञानिकों के अनुसार ज्योतिष जिन कारकों की पहचान घटक के रूप में सामने रखता है। वे घटक वास्तव में कारक हो ही नहीं सकते। क्योंकि कुंडली बनाने में जिन राशि चक्र के तारों की स्थिति का ज्ञान होना आवश्यक है। वे नक्षत्र तारे और यहाँ तक की सूर्य भी पृथ्वी के बहुत से स्थानों पर छः महीनों में कभी भी ऊर्ध्वाधर नहीं होता है। उदाहरण के लिए रूस में स्थित मुमार्नस्क जैसे बड़े शहरों में सूर्य का प्रकाश छः महीनों में कभी नहीं पहुंचा। फिर तो उन शहरों में जन्मे लोगों की जन्म कुंडली नहीं बनाई जा सकती। यह केवल एक तर्क है। जो सूर्य और नक्षत्रों की स्थिति के तथ्यों से निर्मित है। तर्क देने का सिर्फ इतना सा मकसद है कि ज्योतिष जिन नक्षत्रों की स्थिति का जन्म कुंडली बनाने में उपयोग करता है। उन नक्षत्रों की स्थिति को वैज्ञानिक समुदाय कारक के रूप में नहीं देखता। यानि की ज्योतिष दावा तो पेश करता है। परन्तु उनका यह दावा स्वीकारने योग्य नहीं है। क्योंकि ज्योतिष चन्द्रमा को ग्रह के रूप में परिभाषित करता है। जबकि वैज्ञानिक समुदाय चन्द्रमा को उपग्रह के रूप में परिभाषित करता है। इस तरह से कारकों की प्रकृति को लेकर ज्योतिष और वैज्ञानिकों में बहुत से मतभेद हैं। जिनके आधार पर ज्योतिष और विज्ञान मेल नहीं खाते। इसके बाबजूद यदि ज्योतिष दूसरे चरण की शर्त को पूरा कर देता है। तब वैज्ञानिक समुदाय को मजबूरन ज्योतिष को विज्ञान के रूप में स्वीकारना होगा। और पहले चरण की शर्त की सत्यता भी स्वीकारनी होगी।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने सन 2000 में इस विषय पर अध्ययन और अन्वेषण करने के लिए सरकार से अनुदान देने की अनुशंसा की। वैज्ञानिकों के विरोध के बाद ज्योतिष विषय को विज्ञान संकाय से तो हटा लिया गया। परन्तु ज्योतिष को वैदिक ज्ञान की संज्ञा दे दी गई। वास्तविकता यह है कि ग्रह-नक्षत्रों की स्थिति और जन्म कुंडली का यह ज्ञान वेदों में वर्णित नही है। बल्कि फलित ज्योतिष का यह ज्ञान यूनान और बेबीलोन देशों से होते हुए भारत आया। और इसी देश का होकर रह गया। यूनानियों ने ग्रहों को "प्लेनेट" यानि की भटकने वाला कहा। क्योंकि उस समय के ज्ञान के अनुसार ग्रह जैसे सभी आकाशीय पिंडों की गति तारों की स्थिति से बिलकुल भिन्न मालूम पड़ती थी। ग्रहों के सन्दर्भ में तारों की गति पृथ्वी से बहुत अधिक दूर और व्यापक पैमाने में स्थिर होती है। पृथ्वी अन्य ग्रहों की तरह सूर्य जैसे विशालकाय तारे की परिक्रमा करती है। फलस्वरूप हम अन्य सभी ग्रहों और सूर्य की कक्षीय गति का अनुमान आसानी से नहीं लगा सकते। इन तीनों तथ्यों से मिलीजुली सौरमण्डलीय संरचना का चित्रण उस समय के मनुष्यों की सोच को सीमित और बाध्य कर रहा था। इसलिए यूनानियों ने ग्रहों को भटकता हुआ आकाशीय पिंड माना, न की कक्षीय गति करता हुआ आकाशीय पिंड कहा। साथ ही सूर्य-ग्रहण और चन्द्र-ग्रहण ने मनुष्य को इस भ्रम को उचित मानने के लिए प्रमाण दे दिए। ग्रहों और सूर्य के इस मनमाने भटकाव ने लोगों को यह सोचने के लिए बाध्य किया कि ग्रहों और सूर्य की न ही एक निश्चित गति और न ही उनका एक निश्चित पाथ है। इसलिए हमें उनके इस व्यव्हार और आकाशीय शक्ति से बचने की आवश्यकता है। फलस्वरूप हमें ग्रहों की स्थिति के विशेष संयोग के प्रभाव से सतर्क रहना पड़ेगा। तब जाकर ज्योतिष का अध्ययन ग्रहों की स्थिति के विशेष संयोग के प्रभावों को निर्धारित करने के लिए प्रारम्भ हुआ। न की ग्रहों की स्थिति के संयोग के समय को निर्धारित करने के लिए ज्योतिष का अध्ययन प्रारम्भ हुआ। इसलिए इन प्रभावों से बचने के लिए तरह-तरह के टोटके सुझाए जाने लगे। और यहाँ तक की सूर्य जो एक तारा है को ज्योतिष में एक ग्रह माना गया। इस गद्यांश को अच्छे से पढ़ने पर आपको उस समय के लोगों की सोच में एक कमी महसूस होती हुई नज़र आती है। जो आज के मनुष्यों में नहीं पाई जाती। और वो यह है कि यदि अनियमित रूप से कोई आकाशीय पिंड गति कर रहा है। तो बेशक हमें उस आकाशीय पिंड से सतर्क रहने की आवश्यकता है। परन्तु हम उस आकाशीय पिंड की अनियमित गति से यह निष्कर्ष कदापि नहीं निकाल सकते हैं कि वह आकाशीय पिंड हमसे कब आकर टकराएगा ? उसका हम पर क्या प्रभाव पड़ेगा ? जिससे की हमारा अंत होगा ? इसलिए उस समय का यह ज्योतिष अर्थहीन है। आप स्वयं सोचिये जिसकी प्रकृति ही अनियमित हो ! हम उसके व्यव्हार, प्रभाव या उसकी गति को कैसे निर्धारित कर सकते हैं ?
आभासी बल = वास्तविक बल + छद्म बल
ऊपर लिखा गया सूत्र विज्ञान संकाय की पुस्तकों में आज भी पढ़ने को मिलता है। जिसके अनुसार मनुष्य जिन चीजों को आभास करता है। उनमें से जितने हिस्से को वह समझ पाता है। जिसका वह उपयोग करता है। उसे वह वास्तविक मानता है। बांकी शेष को वह छद्म कहता है। मनुष्यों ने अपने बौद्धिक विकास के इस क्रम में छद्म ज्ञान की हिस्सेदारी को पूर्व मनुष्यों के ज्ञान की अपेक्षा अधिक कम किया है। और मनुष्य अपने आप में यह परिवर्तन सतत कर रहा है। छद्म बल को बल की श्रेणी में रखा जाता है। चूँकि इस परिस्थिति में न्य़ूटन के गति के नियम लागू नहीं होते हैं। और यह अजड़त्वीय निर्देशित तंत्र में लगता है। इसलिए इसे ज्ञात करने के कोई मायने नहीं रह जाते। ठीक इसी प्रकार ज्योतिष में विश्वास न करने के कई कारण हैं। ज्योतिष को छद्म विज्ञान तो कहा जाता है। परन्तु वह वास्तव में विज्ञान नहीं कहलाता। अर्थात वह ज्ञान वर्तमान मनुष्य की समझ से पर है। परन्तु यह जरुरी नहीं है कि वह ज्ञान सत्य ही हो ! जिस प्रकार अजड़त्वीय निर्देशित तंत्रों में न्य़ूटन के गति के नियम लागू नहीं होते हैं। ठीक उसी तरह से ज्योतिष में उभयनिष्ठ पूर्वानुमानों और नियमों का आभाव होता है। ज्योतिष को गिने-चुने नियमों और सिद्धांतों में नहीं बाँधा जा सकता। हर ज्योतिषी के अपने अलग नियम और सिद्धांत होते हैं। जिनके आधार पर वे कुंडली की सहायता से निष्कर्ष तक पहुँचते हैं।
ऐसा नहीं है कि ज्योतिष काम नहीं करता। उसकी भविष्यवाणियाँ सच नहीं होती। परन्तु 45 से 54 प्रतिशत सही होने की सम्भावना पर मानव जाति कैसे विश्वास कर सकती है ? जिस कार्यों में करोड़ो-अरबों रूपये फसे होते हैं। उन कार्यों के लिए ज्योतिष में विश्वास करना सबसे बड़ी भूल होती है। आज से सात वर्ष पहले प्रो. जयंत विष्णु नार्लीकर जी की देखरेख में बर्नी सिल्व्हरमन के प्रयोगों को जब पुणे स्थित खगोलीय विज्ञान और खगोलीय भौतिकी केंद्र द्वारा कार्यक्रम रूप में संपन्न किया गया। तब सबसे उत्तम निष्कर्ष जो सामने आया था। वह 40 प्रश्नों में से 22 प्रश्नों के उत्तर सही होने का था। बांकी सभी 27 ज्योतिषियों का औसत निष्कर्ष 40 में से 18 प्रश्नों के सही उत्तर होने का था। इसके अलावा इस कार्यक्रम में ज्योतिषियों की एक संस्था ने भी भाग लिया था। जिन्हे 200 जन्म कुंडलियाँ दी गईं। जिनमें से सिर्फ 102 निष्कर्ष ही वास्तविकता से मेल खाए। जबकि इस कार्यक्रम में संस्था ने सिर्फ 58 प्रतिशत सत्यता आने की सम्भावना रखी थी। जो पूरी नहीं हो पाई। वैसे भी एक सिक्के को ऊपर उछालने के बाद चिट या पट आने की सम्भावना 50 प्रतिशत होती है। ठीक उसी तरह किसी भी काम के पूर्ण होने या न होने की सम्भावना भी स्वभाविक रूप से 50 प्रतिशत होती है। तो फिर ज्योतिष में क्या विशेष है ? बेशक, ज्योतिष काम करता है। परन्तु उसको विज्ञान की श्रेणी में रखना या कहना गलत है।
इस सब के बाबजूद प्रो. जयंत विष्णु नार्लीकर जी ज्योतिष को वैज्ञानिक अथवा अवैज्ञानिक घोषित करने के विषय में कहते हैं "जिस प्रकार रोग की पहचान किये बिना परिक्षण के लिए दवा देना वैज्ञानिक दृष्टिकोण नही है। उसी प्रकार बिना परिक्षण के फलित ज्योतिष को अवैज्ञानिक घोषित करना भी युक्ति संगत नहीं है।" ज्योतिष का यह ज्ञान सदियों से चला आ रहा है। यदि परिक्षण करने के उपरांत उसमें संशोधन की आवश्यकता मालूम होती है। तब तो उसमें संशोधन किया जाना चाहिए। अन्यथा समाज को उसका बहिष्कार करना चाहिए। क्योंकि देश को इससे समय और धन दोनों की हानि उठानी पड़ती है।
वैज्ञानिक युग के इस समाज में ज्योतिष के बने रहने के निम्न कारण हैं :
- घर के बड़े बुजुर्गों के कहे की अवेहलना करनी की हिम्मत न होना।
- ज्योतिष को हमारी संस्कृति मानना।
- अपने भविष्य को जानने की उत्सुकता होना।
- भविष्य में घटित होने वाली बुरी घटनाओं के प्रति सचेत होने की प्रवृत्ति होना।
- स्वयं से अधिक बच्चों के प्रति प्रेम की भावना का होना।
- अधिक पैसे कमाने का लोभ होना।
- ज्योतिष और विज्ञान में भेद कर पाने की क्षमता का ज्ञान न होना।
- और अंतिम, ज्योतिषियों द्वारा ज्योतिष को विज्ञान की तरह पेश करना।
विनम्र निवेदन : यह सोचकर के दूसरों की खिल्ली उड़ाना सबसे बड़ी बेवकूफी है कि "सामने वाला व्यक्ति भ्रमित है।" आज आप में जो समझदारी दिख रही है। वो इन्ही जैसों के भ्रम में जीने के कारण है। जो आज आप समझदार हो। भ्रम से छुटकारा यूँ ही नहीं मिल जाता। इसमें समय लगता है। जिसके लिए इंतज़ार करना पड़ता है। कुछ भ्रम से उबरने में तो पीढ़ियां बीत जाती हैं। परन्तु खिल्ली उड़ाना, न ही अच्छी बात होगी और न ही यह अंतिम विकल्प है। आशा है कि आप अपने शिक्षित होने का प्रमाण देंगे। और हमारे इस निवेदन का मान बढ़ाएंगे। शुक्रिया..
ज्योतिष का दर्शन अगले लेख में..
बहुत अच्छी जानकारी है..... शेयर करने के लिए धन्यबाद !!!
जवाब देंहटाएंfrom- AapkiSafalta
आज के विज्ञान के इस युग में कुंड़ली एक अभिशाप बनी हुई है
हटाएंडॉ, इंजीनियर , भी बच्चों के शदिया बिना कुंडली देखे नही कर रहे
इस पोस्ट के लिए धन्यवाद
अधिकतर देखने को मिलता है कि "पढ़े-लिखे और तकनीकी ज्ञान रखने वाले लोग भी अंधविश्वासी होते हैं ?" लोगों का प्रश्न होता है कि ऐसा कैसे संभव है ? वास्तव में विज्ञान का मतलब वैज्ञानिक दृष्टिकोण नहीं होता है और न ही तकनीकी ज्ञान का वैज्ञानिक दृष्टिकोण से कोई संबंध होता है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण का कार्यक्षेत्र विज्ञान के कार्यक्षेत्र से बहुत व्यापक होता है। इसलिए विज्ञान और तकनीकी ज्ञान रखने वाला व्यक्ति भी अंधविश्वासी होता है। उसमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण की कमी होती है। फिर भले ही वह कितनी भी पुस्तकें क्यों न पढ़ ले। मोबाइल, कंप्यूटर और वाई-फाई जैसी सुविधाओं का क्यों न उपयोग करता हो। परन्तु ऐसे लोग समाज और देश की उन्नति में बाधा उत्पन्न करते हैं। अंधविश्वासी होते हैं। इसलिए विज्ञान से अधिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बढ़ावा देने की बात की जाती है।
हटाएंपूरा लेख यहाँ से पढ़ें : http://www.basicuniverse.org/2016/03/Vaigyanik-Drushtikon.html
लेखक का निबंध और उसपर की गयी टिप्पणियों से यह पता चलता है की ज्योतिष के बारे में इन सबकी जानकारी शून्य है. यदि अंदाज लगाया जाय तो पुरे भारत में अच्छे ज्योतिषियों की संख्या सौ से अधिक नहीं होगी. अतः यह संभावित है कि यहाँ केवल वही लोग टिप्पणी करेंगे जिनको ज्योतिष का ज्ञान नहीं है. इस तरह वोटिंग से क्या फायदा?
जवाब देंहटाएंगैलिलियो के ४५० साल बाद भी आज अगर यह इस वैज्ञानिक युग में यदि पूरे भारत में सर्वे किया जाय कि पृथ्वी सूर्य के चारो ओर घुमती है या सूर्य पृथ्वी के चारो और तो ७०% से अधिक लोग गलत उतर देंगे.
जिस तरह से होमियोपैथी को सही वैज्ञानिक आधार न मिलने पर गलत पद्धति कहा जाता है जबकि यह एलॉपथी से १००० गुना बेहतर है उसी तरह एस्ट्रोलॉजी को भी माना जाता है. एक बेहतर होम्योपैथ १००० allopath डॉक्टर से भी ज्यादा कारगर है. इन दोनों systems के साथ बात यह है कि तेज विद्यार्थी इस क्षेत्र में नहीं आते.
यदि इनकी सत्यता परखना हो तो इस विद्या को सीखें और तब टिप्पणी करें.
आपके विचार से सहमत हूँ।अभी दिल्ली के पास मोदीनगर में राष्ट्रीय ज्योतिष परिषद की स्थापना की गयी।
जवाब देंहटाएंइसमे उच्च पद पर जो लोग हैं, उन्हें ज्योतिष का ज्ञान नहीं है। वे उस सिद्धांत गणित को भी नही समझते जिनपर फलित आधारित है।
ऐसे लोग ही ज्योतिष जगत में कंटक हैं और जब ज्योतिष बनाम विज्ञान की चर्चा होती है तो इनके पास बोलने को कुछ नही होता। अनटप्पू बातें कर ज्योतिष की छवि का सत्यानाश करते हैं।
Am sharks
हटाएंआपको कोई पद नहीं दिया गया क्योंकि आप इसके योग्य नहीं हैं। इसलिए आप पूरे ज्योतिष पर एक सवालिया निशान लगाने की गुस्ताखी कर सकते हैं।
इसी को शास्त्रों ने खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे का उदाहरण कहा है।
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