विज्ञान जगत : मनुष्यों द्वारा निर्मित एक ऐसा समाज जहाँ प्रत्येक मनुष्य खोज और उस खोज के उपयोग को लेकर पूर्णतः स्वतंत्र होता है। विज्ञान जगत कहलाता है। "विज्ञान क्या है ?" के उत्तर से एक बात बहुत स्पष्ट हो जाती है कि आखिर क्यों मनुष्य को विज्ञान जगत में समानता और स्वतंत्रता का अधिकार है। जहाँ एक तरफ "समानता का अधिकार" हमें प्रकृति ने दे रखा है। जिसका अध्ययन हम वैज्ञानिक विधियों के माध्यम से करते हैं। वहीं दूसरी तरफ "स्वतंत्रता का अधिकार" हमें विज्ञान की प्रकृति (संचयशीलता) से प्राप्त है। विज्ञान जो एक पद्धति है। जिसमें विकल्प के लक्षण होते हैं। जहाँ किसी भी प्रकार की बाध्यता नहीं होती है। संचयशीलता जिसकी प्रकृति होती है। उसी विज्ञान ने हमें उसके उपयोग और उसकी नयी-नयी शाखाओं की खोज की स्वतंत्रता दे रखी है।
विज्ञान के सम्पूर्ण इतिहास और वैज्ञानिक विधियों के विकास पर गौर करने से दो बातें स्पष्ट हो जाती हैं। पहली : विज्ञान की भिन्न-भिन्न शाखाओं का प्रादुर्भाव अलग-अलग समय में हुआ है। और दूसरी : भले ही वैज्ञानिक विधियों का विकास प्रकृति के अध्ययन से शुरू होकर आज उसके उपयोग तक जा पहुंचा है। परन्तु हम निश्चित तौर पर यह नहीं कह सकते हैं कि वैज्ञानिक विधियों के विकास के साथ ही साथ समाज में उसका चलन भी रहा है ! यदि ऐसा हुआ होता तो आज समाज में सिर्फ परीक्षण विधि का ही उपयोग होता। प्रेक्षण और प्रयोग विधि इस समाज से अपना अस्तित्व खो चुकी होतीं। परन्तु ऐसा नहीं है। हम आज भी अपनी आवश्यकताओं के हिसाब से इन वैज्ञानिक विधियों का उपयोग करते हैं। तत्पश्चात खोज की प्रमाणिकता अन्य दूसरी वैज्ञानिक विधि से भी सिद्ध करते हैं।
वृद्धि और विकास दोनों भिन्न-भिन्न चीजें हैं। जहाँ एक तरफ वृद्धि का आशय किसी एक विशेष गुण अथवा भौतिक राशि के मान में बढ़ोत्तरी से होता है। वहीँ दूसरी तरफ विकास का आशय आवश्यक गुणों अथवा तत्वों की संख्या और उनके मान में बढ़ोत्तरी से होता है। वृद्धि एक आयाम में बढ़ोत्तरी है जबकि विकास बहुआयम में बढ़ोत्तरी है। भौतिक रूपों और घटनाओं की जानकारी में बढ़ोत्तरी होना ज्ञान में वृद्धि है। जबकि विज्ञान और तकनीक में नयी-नयी शाखाओं की खोज तथा वैज्ञानिक विधियों और प्रक्रियाओं का उपयोग विज्ञान का विकास है। इस प्रकार विज्ञान और तकनीक के विकास में मानव जाति का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। यदि किसी कारण से मानव जाति नष्ट हो जाती है। तो विज्ञान अपना अस्तित्व खो देगा। विज्ञान ने मनुष्य को पूरा प्रभुत्व प्रदान किया है। अर्थात विज्ञान ने मनुष्य को निम्न स्वतंत्रता दे रखी है।यह आश्चर्य की बात है कि वैज्ञानिक विधियों और विचारधाराओं की शक्ति के प्रति सजग हमारे समाज ने स्वयं अपने जीवन को सुव्यवस्थित करने में इन विधियों का उपयोग नहीं किया है। विज्ञान ने स्वयं हमें अपने ऊपर पूरा प्रभुत्व प्रदान किया है और स्वयं अपनी तथा अपनी सामाजिक सत्ता की सफलताओं को सुनिश्चित किया है। परन्तु हमने स्पष्ट और सरल वैज्ञानिक संकल्पनाओं की तुलना में अठारहवीं शताब्दी की दार्शनिक विचारधाराओं की कोरी कल्पनाओं को अधिक पसंद किया है।
- डॉ. अलेक्सिस कैरेल (चिकित्सा क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित)
समानता का अधिकार :
"विज्ञान में प्रत्येक वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं के कार्य को बराबर महत्व दिया जाता है।"
विस्तार : किसी भी उम्र और देश का नागरिक, शिक्षित-अशिक्षित, स्त्री-पुरुष कोई भी व्यक्ति खोज कर सकता है। और अपनी बात समाज के सामने रख सकता है। प्रत्येक व्यक्ति की खोज को उतना ही महत्व दिया जाता है। जितना कि एक खोजकर्ता और वैज्ञानिक को दिया जाता है। शर्त सिर्फ इतनी सी होती है कि "उसकी खोज मानव जाति की समझ को विकसित कर सके।" अर्थात वह खोज ज्ञात ज्ञान के संगत होनी चाहिए। यह विज्ञान की सबसे महत्वपूर्ण अवधारणा का ही परिणाम है कि आज विज्ञान इतना विकास कर पाया है।
विज्ञान में मुख्य रूप से प्रकृति का अध्ययन किया जाता है। और चूँकि प्रकृति दो समरूप चीजों में भेदभाव नहीं करती है। इसलिए प्रयोग द्वारा क्रियाविधि का दोहराव किया जाता है। जिस निष्कर्ष पर वैज्ञानिक समुदाय पहुँचता है। ठीक उसी निष्कर्ष पर हम भी पहुँचते हैं। जो आश्चर्यजनक कार्य एक जादूगर कर सकता है। उसी कार्य का दोहराव हम भी कर सकते हैं। अर्थात प्रकृति ने भेदभाव न करके हम सभी मनुष्यों को विज्ञान में बराबरी का अधिकार दिया है।
विस्तार : किसी भी उम्र और देश का नागरिक, शिक्षित-अशिक्षित, स्त्री-पुरुष कोई भी व्यक्ति खोज कर सकता है। और अपनी बात समाज के सामने रख सकता है। प्रत्येक व्यक्ति की खोज को उतना ही महत्व दिया जाता है। जितना कि एक खोजकर्ता और वैज्ञानिक को दिया जाता है। शर्त सिर्फ इतनी सी होती है कि "उसकी खोज मानव जाति की समझ को विकसित कर सके।" अर्थात वह खोज ज्ञात ज्ञान के संगत होनी चाहिए। यह विज्ञान की सबसे महत्वपूर्ण अवधारणा का ही परिणाम है कि आज विज्ञान इतना विकास कर पाया है।
विज्ञान में मुख्य रूप से प्रकृति का अध्ययन किया जाता है। और चूँकि प्रकृति दो समरूप चीजों में भेदभाव नहीं करती है। इसलिए प्रयोग द्वारा क्रियाविधि का दोहराव किया जाता है। जिस निष्कर्ष पर वैज्ञानिक समुदाय पहुँचता है। ठीक उसी निष्कर्ष पर हम भी पहुँचते हैं। जो आश्चर्यजनक कार्य एक जादूगर कर सकता है। उसी कार्य का दोहराव हम भी कर सकते हैं। अर्थात प्रकृति ने भेदभाव न करके हम सभी मनुष्यों को विज्ञान में बराबरी का अधिकार दिया है।
स्वतंत्रता का अधिकार :
1. प्रश्न उठाने को लेकर स्वतंत्रता : हम किसी भी समय किसी भी सिद्धांत, नियम, तथ्य अथवा जानकारी की प्रमाणिकता को लेकर प्रश्न उठा सकते हैं। फिर चाहे उस सिद्धांत का प्रतिपादन एक वैज्ञानिक ने ही क्यों न किया हो ! उन नियमों और तथ्यों को एक खोजकर्ता ने ही क्यों न खोजा हो ! जानकरी की आँखों देखी प्रमाणिकता भले ही लाखों लोग स्वयं क्यों न देते हों। इसके बाद भी हम असंगत अथवा अपवाद स्वरूप घटना या भौतिकता के किसी भी रूप की जानकारी देकर पुरानी मान्यताओं पर प्रश्न चिन्ह लगा सकते हैं।
2. खोज या मापन में विधि और प्रक्रिया के उपयोग को लेकर स्वतंत्रता : मनुष्य खोज करने के लिए किसी भी विधि का उपयोग कर सकता है। परन्तु जब उसकी यह खोज एक से अधिक विधियों द्वारा परखी जा चुकी होती है। तब वह खोज प्रमाणित मानी जाती है। ठीक इसी प्रकार मापन की प्रक्रिया को लेकर भी मनुष्य स्वतंत्र होता है। शर्त सिर्फ इतनी सी होती है कि भौतिक राशियों को मापने का उद्देश्य पूरा होना चाहिए। अर्थात परिणाम भिन्न-भिन्न हो सकते हैं। परन्तु निष्कर्ष एक होना चाहिए। इसका सबसे अच्छा उदाहरण समय और गति को सापेक्ष मानकर उसका मापन करना है।
3. प्रमाण जुटाने और उसके उपयोग की स्वतंत्रता :
3. प्रमाण जुटाने और उसके उपयोग की स्वतंत्रता :
4. विज्ञान में नयी शाखाओं की खोज को लेकर स्वतंत्रता : विज्ञान की नयी शाखाओं की खोज भले ही एक संयोग होता है। परन्तु उस शाखा का एक नयी शाखा के रूप में विकास मनुष्यों का सामूहिक निर्णय होता है। उसे चर्चा के रूप में एक विषय बनाना हम मनुष्यों की आवश्यकता और इच्छा पर निर्भर करता है। शाखाओं की खोज का संयोग भी मनुष्यों की आवश्यकता और इच्छा का ही परिणाम होता है। जिसे असंगतता में विज्ञान की शर्तों के क्रियान्वय होने पर खोजा जाता है।
5. विज्ञान की खोज और उसकी उपयोगिता को लेकर स्वतंत्रता : भौतिकता के रूपों (रासायनिक तत्वों, अवयवी कणों, पिंडों आदि) की खोज, समस्याओं के समाधान की खोज, वैकल्पिक साधनों और युक्तियों की खोज, सिद्धांतों, नियमों और तथ्यों की खोज, कारण, घटना और उनके प्रभावों के अंतर्संबंधों की खोज तथा इन खोजों के व्यवहारिक उपयोग की प्रक्रिया विज्ञान के अंतर्गत आती हैं। इन खोजों से मनुष्य के ज्ञान में वृद्धि होती है। जबकि इन्ही खोजों के अलावा जब हम वैज्ञानिक विधियों, प्रक्रियाओं और विज्ञान की शाखाओं की खोज करते हैं। तो विज्ञान में विकास होता है। हम विज्ञान की विभिन्न शाखाओं से ज्ञान में वृद्धि करने उसके उपयोग से तकनीक विकसित करने के लिए पूर्णतः स्वतंत्र होते हैं।
हम न ही आने वाली पीढ़ी को और न ही अन्य दूसरे लोगों को खोज की प्रमाणिकता के लिए अन्य दूसरी वैज्ञानिक विधियों को उपयोग में लेने को बाध्य कर सकते हैं। और न ही वैकल्पिक युक्तियों की खोज के लिए बाध्य कर सकते हैं। विज्ञान के उपयोग से तकनीक विकसित करने के लिए हम पूर्णतः स्वतंत्र हैं। इसके लिए आवश्यक है कि हम अपने कर्तव्यों को ध्यान में रखें और उनका पालन करें। फिर चाहे उस तकनीक/उपकरण/साधन का उपयोग मानव जाति के हित में हो अथवा न हो !
6. विज्ञान के प्रचार-प्रसार की स्वतंत्रता : मनुष्य का विज्ञान पर विश्वास तथा उसका प्रचार-प्रसार वैज्ञानिक पद्धतियों और मनुष्य की आवश्यकताओं पर निर्भर करता है। हमारी अपनी आवश्यकता देश-काल के आधार पर बदलती रहती है। इसके बाबजूद हम विकल्प प्रस्तुत करने के लिए पूर्णतः स्वतंत्र होते हैं। क्योंकि देखा गया है कि हमारी आवश्यकता को एक ही तकनीक पूरा नहीं कर पाती है। फलस्वरूप हमें अन्य दूसरी तकनीक भी विकसित करनी होती है। हम जिस प्रकार विज्ञान के प्रचार-प्रसार द्वारा विकल्प प्रस्तुत करने के लिए स्वतंत्र होते हैं ठीक उसी प्रकार समाज भी उसके उपयोग को लेकर पूर्णतः स्वतंत्र होता है।
विशेष बिंदु :हम न ही आने वाली पीढ़ी को और न ही अन्य दूसरे लोगों को खोज की प्रमाणिकता के लिए अन्य दूसरी वैज्ञानिक विधियों को उपयोग में लेने को बाध्य कर सकते हैं। और न ही वैकल्पिक युक्तियों की खोज के लिए बाध्य कर सकते हैं। विज्ञान के उपयोग से तकनीक विकसित करने के लिए हम पूर्णतः स्वतंत्र हैं। इसके लिए आवश्यक है कि हम अपने कर्तव्यों को ध्यान में रखें और उनका पालन करें। फिर चाहे उस तकनीक/उपकरण/साधन का उपयोग मानव जाति के हित में हो अथवा न हो !
6. विज्ञान के प्रचार-प्रसार की स्वतंत्रता : मनुष्य का विज्ञान पर विश्वास तथा उसका प्रचार-प्रसार वैज्ञानिक पद्धतियों और मनुष्य की आवश्यकताओं पर निर्भर करता है। हमारी अपनी आवश्यकता देश-काल के आधार पर बदलती रहती है। इसके बाबजूद हम विकल्प प्रस्तुत करने के लिए पूर्णतः स्वतंत्र होते हैं। क्योंकि देखा गया है कि हमारी आवश्यकता को एक ही तकनीक पूरा नहीं कर पाती है। फलस्वरूप हमें अन्य दूसरी तकनीक भी विकसित करनी होती है। हम जिस प्रकार विज्ञान के प्रचार-प्रसार द्वारा विकल्प प्रस्तुत करने के लिए स्वतंत्र होते हैं ठीक उसी प्रकार समाज भी उसके उपयोग को लेकर पूर्णतः स्वतंत्र होता है।
विज्ञान, मनुष्य को कभी भी निर्देशित नहीं करता है कि उसे क्या-क्या करना चाहिए और क्या-क्या नहीं करना चाहिए। बल्कि मनुष्य जो करना चाहता है। उस कार्य को कैसे करना चाहिए अर्थात उस कार्य को कैसे किया जा सकता है ? के बारे में विज्ञान युक्ति, विधि, प्रक्रिया और उसके साधनों का सुझाव उपलब्ध कराता है। अर्थात हम सुझाव को मानने या न मानने के लिए पूर्णतः स्वतंत्र होते हैं। वैकल्पिक युक्तियों अथवा साधनों के चुनाव के लिए भी स्वतंत्र होते हैं। यहाँ स्वतंत्रता का आशय "मनुष्य स्वयं तथा विज्ञान के विकास के लिए मनुष्य किसी भी प्रकार से बाध्य नहीं होता है" से है।
विज्ञान ने स्वयं हमें अपने ऊपर पूरा प्रभुत्व प्रदान किया है। अर्थात जिस प्रकार संविधान की प्रस्तावना में वर्णित "सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न" शब्द का आशय "इस देश की अच्छाई-बुराई के लिए हमारे अपने निर्णय जिम्मेदार होंगे। हमें किसी भी दूसरे व्यक्ति के कहे पर चलने की आवश्यकता नहीं है। हम निर्णय लेने में स्वयं सक्षम/समर्थ हैं।" से होता है। ठीक उसी प्रकार विज्ञान के उपयोग को लेकर भी हम मनुष्य सक्षम हैं। क्योंकि विज्ञान खोजे गए ज्ञान द्वारा मनुष्य की समझ विकसित करता है। खोजे गए ज्ञान के साथ-साथ जब हम उस विधि या प्रक्रिया को समाज के सामने रखते हैं। जिसके उपयोग से हमने खोज की है। तो विज्ञान हमे उसके उपयोग को लेकर निर्णय लेने में सक्षम बनाता है। इसलिए हम स्वीकारते हैं कि आने वाला परिणाम हमारे अपने निर्णय की प्रतिक्रिया होती है। हम स्वयं इस परिणाम के लिए जिम्मेदार होते हैं। परिणाम की अच्छाई या बुराई हमारे अपने निर्णय का परिणाम होता है। अर्थात विज्ञान न ही अच्छा है और न ही बुरा है। उसका उपयोग कैसे करना है ? यह हम मनुष्यों पर निर्भर करता है।
"विज्ञान में मनुष्य का प्रभुत्व" अर्थात विज्ञान के विकास की दर और उसकी अच्छाई-बुराई का परिणाम मनुष्य के निर्णय पर निर्भर करता है। जबकि "प्रकृति में मनुष्य का प्रभुत्व" अर्थात उस व्यवस्था रुपी तंत्र पर मनुष्य का नियंत्रण जिसके द्वारा वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकता है। आवश्यकतानुसार उस व्यवस्था में बदलाव कर सकता है। इसके लिए आवश्यक है कि मनुष्य प्रकृति के प्रति अपनी अधिक से अधिक समझ विकसित करे। और उसकी सीमाओं का निर्धारण करे। जबकि विज्ञान में मनुष्य का प्रभुत्व सिर्फ उसके उपयोग तक सीमित है। अर्थात विज्ञान के उपयोग को लेकर मनुष्य स्वतंत्र है। खोज करने के लिए स्वतंत्र है। परन्तु परिणाम प्रकृति निर्धारित करती है। विज्ञान में प्रभुत्व अर्थात रास्ते के चुनाव की स्वतंत्रता जबकि प्रकृति में प्रभुत्व अर्थात मंजिल रुपी व्यवस्था में आवश्यकतानुसार बदलाव...
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