विज्ञान प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से प्रकृति पर केंद्रित होता है। समस्याओं के निदान की खोज हो या फिर प्रतिरूप/प्रतिमानों की खोज हो ! आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु नई प्रणालियों के निर्माण की संभावना की खोज हो या फिर कारण का घटना, प्रभाव और लक्षण के साथ संबंध की खोज हो ! वैकल्पिक साधनों और युक्तियों की खोज हो या फिर सिद्धांतों, नियमों और तथ्यों की खोज हो ! विज्ञान की प्रत्येक खोज प्रकृति पर आधारित होती है। और चूँकि प्रकृति कोई वस्तु या पिंड तो है नहीं कि हम विज्ञान के कार्यान्वित होने की शर्तों को आसानी से समझ सकें। इसलिए हम प्रकृति को समझने के लिए प्रकृति का तीन अलग-अलग रूपों में अध्ययन करते हैं। साथ ही प्रकृति का इन तीन रूपों में वर्गीकरण करने से ऊपर लिखी सभी खोजों के लिए वैज्ञानिक विधियों और प्रक्रियाओं का निर्धारण करने में आसानी होती है।
इसके पहले के लेख में हमने देखा था कि प्रकृति को एक व्यवस्था के रूप में जाना जाता है। जो सूक्ष्म धरातल के स्तर से लेकर खगोलीय धरातल के स्तर तक व्यवस्था बनाए रखती है। इसके बाबजूद हम मनुष्य, जीव-जंतु और पेड़-पौधे विकास करने के लिए स्वतंत्र होते हैं ! क्या यह "पूर्ण स्वतंत्रता" है ? यदि इस प्रश्न का उत्तर "हाँ" में है तब तो ठीक है। परन्तु यदि इस प्रश्न का उत्तर "नहीं" में है, तब तो एक प्रश्न और उठता है कि इस स्वतंत्रता की सीमा क्या (कहाँ तक) है ? प्रकृति इस विशाल ब्रह्माण्ड को कैसे संचालित करती है ? विज्ञान के कार्यान्वित होने की निम्न लिखित शर्तें हैं।
1. नियम, नियतांक और सामंजस्य : जब मनुष्य को नियमितता का आभास होने लगा। तब मनुष्य ने अपने प्रेक्षणों में पाया कि कुछ तो है जिसकी पुनरावृत्ति होती है। कुछ तो है जिसका क्रम निश्चित होता है ! अर्थात नियमित है। तब जाकर मनुष्य ने प्रकृति में नियमित और नियतांक होने का महत्व समझा। क्योंकि इस आधार पर निश्चित समय के बाद होने वाली घटनाओं की भविष्यवाणी करना संभव होता है। नियम और नियतांक द्वारा असंबंधित प्रतीत होने वाले भौतिकता के रूपों में आपसी संबंध की खोज की जाती है। क्योंकि ये नियम और नियतांक ही हैं, जो भौतिकता के विभिन्न रूपों में सामंजस्य स्थापित करते हैं। फलस्वरूप हमें सामंजस्य से निर्मित तंत्रों का ज्ञान/बोध होता है। मुख्य रूप से इस शर्त की उपस्थिति में प्रेक्षण विधि का उपयोग किया जाता है। इस विधि में लम्बे समय तक आंकड़े एकत्रित किये जाते हैं। और विश्लेषण द्वारा असंबंधित प्रतीत होने वाले भौतिकता के रूपों में आपसी संबंध खोजा जाता है। परन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि इस शर्त की उपस्थिति में सिर्फ प्रेक्षण विधि का ही उपयोग किया जाता है। अन्य वैज्ञानिक विधियों और प्रक्रियाओं का उपयोग करना भी संभव होता है। परन्तु जब एक से अधिक विधियों और प्रक्रियाओं द्वारा एक समान निष्कर्ष प्राप्त होते हैं। तो निष्कर्ष अधिक मान्य कहलाते हैं।
तंत्र में नियम और नियतांक होने की शर्त पूरी होने पर आगमन विधि के द्वारा सिद्धांतों का सरलीकरण किया जाता है। ताकि नियम और नियतांकों के आधार पर सूक्ष्म धरातल में और सुदूर स्थित प्रतिरूप और प्रतिमानों की खोज की जा सके। केप्लर के नियम इसका सबसे अच्छा उदाहरण है। जिसे प्रारम्भ में सिर्फ मंगल ग्रह के लिए प्रतिपादित किया गया था। जिसका बाद में चलकर सरलीकरण किया गया है। क्योंकि ये नियम और तंत्रों के नियतांक सभी खगोलीय तंत्रों में लागू पाए जाते हैं। सौर परिवार के सभी ग्रहों का आपसी और सूर्य के साथ सामंजस्य तथा इलेक्ट्रॉन्स का आपसी और नाभिक के साथ सामंजस्य से जिन भिन्न-भिन्न तंत्रों का बोध होता है। ये तंत्र नियमों और नियतांकों की ही देन होते हैं।
2. कानून और व्यवस्था : जिस प्रकार सामंजस्य के लिए नियम और नियतांक तथा प्रणाली के लिए क्रियाविधि जिम्मेदार होती है। ठीक उसी प्रकार व्यवस्था बनाए रखने के लिए कानून जिम्मेदार होता है। वातावरण प्रत्येक व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण घटक होता है। और यही महत्वपूर्ण घटक स्वतंत्रता और बाध्यता दोनों की सीमा को निर्धारित करता है। कानून, सामाजिक व्यवस्था का भी घटक है और प्रकृति जिसे हम एक व्यवस्था के रूप में जानते हैं उसका भी घटक है। परन्तु सामाजिक व्यवस्था और प्रकृति दोनों के कानून में काफी भिन्नताएं हैं।
1. जहाँ सामाजिक व्यवस्था का कानून सुनवाई करता है। वहीँ प्रकृति का कानून सुनवाई नहीं करता है।
2. सामाजिक व्यवस्था का कानून कई कारणों से भेदभाव करता है और विशेष परिस्थिति में छूट भी देता है। परन्तु प्रकृति का कानून न ही भेदभाव करता है और न हीं कोई छूट देता है।
3. इसलिए सामाजिक व्यवस्था का कानून सबूत मांगता है। जबकि प्रकृति के कानून को सबूत की आवश्यकता नहीं होती है।
4. यह जरुरी नहीं है कि सामाजिक व्यवस्था के कानून की सजा तुरंत लागू हो। परन्तु प्रकृति के कानून की सजा तुरंत मिलती है। अर्थात प्रकृति पहले से आगाह नहीं करती है कि मनुष्य कोई गलती कर रहा है। हमें अपनी गलती को स्वयं खोजना होता है। या यूँ कहें कि हमें वातावरण के परिप्रेक्ष्य अपनी स्वतंत्रता स्वयं निर्धारित करनी होती है। जो प्रकृति वातावरण के अनुसार बदलती रहती है।
इसलिए मनुष्य वातावरण के परिप्रेक्ष्य अपनी स्वतंत्रता को निर्धारित करने के लिए प्रयोग विधि का उपयोग करता है। प्रयोग विधि के अंतर्गत मनुष्य हस्तक्षेप करके प्रकृति के व्यवहार (प्रतिक्रिया) को समझने की चेष्टा करता है। व्यापक प्रभाव को समझने के लिए छोटे-छोटे प्रयोगों के परिणाम का गुणन किया जाता है। अप्राकृतिक घटनाओं के आंकड़े अर्थात अव्यवस्था को मापने से उस मानक व्यवस्था में मनुष्य की स्वतंत्रता से होने वाले परिवर्तन का आकलन होता है। चूँकि सामाजिक व्यवस्था किसी एक व्यक्ति की इच्छा पर तो संचालित नहीं होती है। व्यवस्था बनाए रखना एक सामूहिक निर्णय होता है। इसलिए सामाजिक व्यवस्था का कानून और प्रकृति के कानून में भिन्नता होने के बाद भी "सामाजिक व्यवस्था" विज्ञान के कार्यक्षेत्र की सीमा के अंतर्गत आती है। और अंग्रेजी में मनुष्य के स्वाभाव को नेचर (Nature) ही कहते हैं। मानव जाति और विज्ञान का अब तक का सम्पूर्ण विकास इसी शर्त की उपस्थिति में प्रयोग विधि द्वारा संभव हुआ है।
मूल रूप से इस शर्त की उपस्थिति में प्रयोग विधि का उपयोग किया जाता है। परन्तु याद रहे प्रयोग विधि के भी चार अलग-अलग रूप होते हैं। जिनका उद्देश्य उसको उपयोग में लाने वाले व्यक्ति अपने व्यवसाय (खोजी, विद्यार्थी, आम नागरिक, आविष्कारक) द्वारा निर्धारित करते हैं। कानून और व्यवस्था की उपस्थिति में वैकल्पिक साधनों और युक्तियों की खोज तथा कारण का घटना, प्रभाव और लक्षण के साथ संबंध खोजा जाता है। जल और वायु (ऑक्सीजन, नाइट्रोजन या कार्बन डाई ऑक्साइड) चक्र का अध्ययन भी इसी शर्त की उपस्थिति में किया जाता है। सामाजिक व्यवस्था के अंतर्गत आने वाली अर्थव्यवस्था और शासन/प्रशासन व्यवस्था में भी विज्ञान कार्य करता है। क्योंकि इस क्षेत्र में भी हम आंकड़ों के आधार पर (विकास आदि के विषय में) भविष्यवाणियां कर सकते हैं।
इस तरह से हम पाते हैं कि विज्ञान किसी न किसी रूप में हर जगह कार्य करता है। क्योंकि वहां प्रकृति कार्य करती है। और यह प्रकृति विशाल ब्रह्माण्ड को संचालित करने के लिए स्वयं छोटे-छोटे हिस्सों में तंत्रों/व्यवस्था/प्रणालियों में विभक्त हो जाती है। इसके बाबजूद वह "भेद न करने" का अपना गुणधर्म कभी और कहीं भी नहीं छोड़ती है। और इस प्रकार विज्ञान की सबसे महत्वपूर्ण शर्त होती है : "होना"। अर्थात जो है ही नहीं, उसके बारे में विज्ञान संभावना भी नहीं जताता है। फिर चाहे "जो भी हो" वह कृत्रिम हो या प्राकृतिक। वह किसी न किसी रूप में प्रकृति का ही अंग है। और वह किसी न किसी रूप में विज्ञान के कार्यान्वित होने की शर्त को (अवश्य) पूरा करता है।
इसके पहले के लेख में हमने देखा था कि प्रकृति को एक व्यवस्था के रूप में जाना जाता है। जो सूक्ष्म धरातल के स्तर से लेकर खगोलीय धरातल के स्तर तक व्यवस्था बनाए रखती है। इसके बाबजूद हम मनुष्य, जीव-जंतु और पेड़-पौधे विकास करने के लिए स्वतंत्र होते हैं ! क्या यह "पूर्ण स्वतंत्रता" है ? यदि इस प्रश्न का उत्तर "हाँ" में है तब तो ठीक है। परन्तु यदि इस प्रश्न का उत्तर "नहीं" में है, तब तो एक प्रश्न और उठता है कि इस स्वतंत्रता की सीमा क्या (कहाँ तक) है ? प्रकृति इस विशाल ब्रह्माण्ड को कैसे संचालित करती है ? विज्ञान के कार्यान्वित होने की निम्न लिखित शर्तें हैं।
1. नियम, नियतांक और सामंजस्य : जब मनुष्य को नियमितता का आभास होने लगा। तब मनुष्य ने अपने प्रेक्षणों में पाया कि कुछ तो है जिसकी पुनरावृत्ति होती है। कुछ तो है जिसका क्रम निश्चित होता है ! अर्थात नियमित है। तब जाकर मनुष्य ने प्रकृति में नियमित और नियतांक होने का महत्व समझा। क्योंकि इस आधार पर निश्चित समय के बाद होने वाली घटनाओं की भविष्यवाणी करना संभव होता है। नियम और नियतांक द्वारा असंबंधित प्रतीत होने वाले भौतिकता के रूपों में आपसी संबंध की खोज की जाती है। क्योंकि ये नियम और नियतांक ही हैं, जो भौतिकता के विभिन्न रूपों में सामंजस्य स्थापित करते हैं। फलस्वरूप हमें सामंजस्य से निर्मित तंत्रों का ज्ञान/बोध होता है। मुख्य रूप से इस शर्त की उपस्थिति में प्रेक्षण विधि का उपयोग किया जाता है। इस विधि में लम्बे समय तक आंकड़े एकत्रित किये जाते हैं। और विश्लेषण द्वारा असंबंधित प्रतीत होने वाले भौतिकता के रूपों में आपसी संबंध खोजा जाता है। परन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि इस शर्त की उपस्थिति में सिर्फ प्रेक्षण विधि का ही उपयोग किया जाता है। अन्य वैज्ञानिक विधियों और प्रक्रियाओं का उपयोग करना भी संभव होता है। परन्तु जब एक से अधिक विधियों और प्रक्रियाओं द्वारा एक समान निष्कर्ष प्राप्त होते हैं। तो निष्कर्ष अधिक मान्य कहलाते हैं।
तंत्र में नियम और नियतांक होने की शर्त पूरी होने पर आगमन विधि के द्वारा सिद्धांतों का सरलीकरण किया जाता है। ताकि नियम और नियतांकों के आधार पर सूक्ष्म धरातल में और सुदूर स्थित प्रतिरूप और प्रतिमानों की खोज की जा सके। केप्लर के नियम इसका सबसे अच्छा उदाहरण है। जिसे प्रारम्भ में सिर्फ मंगल ग्रह के लिए प्रतिपादित किया गया था। जिसका बाद में चलकर सरलीकरण किया गया है। क्योंकि ये नियम और तंत्रों के नियतांक सभी खगोलीय तंत्रों में लागू पाए जाते हैं। सौर परिवार के सभी ग्रहों का आपसी और सूर्य के साथ सामंजस्य तथा इलेक्ट्रॉन्स का आपसी और नाभिक के साथ सामंजस्य से जिन भिन्न-भिन्न तंत्रों का बोध होता है। ये तंत्र नियमों और नियतांकों की ही देन होते हैं।
2. कानून और व्यवस्था : जिस प्रकार सामंजस्य के लिए नियम और नियतांक तथा प्रणाली के लिए क्रियाविधि जिम्मेदार होती है। ठीक उसी प्रकार व्यवस्था बनाए रखने के लिए कानून जिम्मेदार होता है। वातावरण प्रत्येक व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण घटक होता है। और यही महत्वपूर्ण घटक स्वतंत्रता और बाध्यता दोनों की सीमा को निर्धारित करता है। कानून, सामाजिक व्यवस्था का भी घटक है और प्रकृति जिसे हम एक व्यवस्था के रूप में जानते हैं उसका भी घटक है। परन्तु सामाजिक व्यवस्था और प्रकृति दोनों के कानून में काफी भिन्नताएं हैं।
1. जहाँ सामाजिक व्यवस्था का कानून सुनवाई करता है। वहीँ प्रकृति का कानून सुनवाई नहीं करता है।
2. सामाजिक व्यवस्था का कानून कई कारणों से भेदभाव करता है और विशेष परिस्थिति में छूट भी देता है। परन्तु प्रकृति का कानून न ही भेदभाव करता है और न हीं कोई छूट देता है।
3. इसलिए सामाजिक व्यवस्था का कानून सबूत मांगता है। जबकि प्रकृति के कानून को सबूत की आवश्यकता नहीं होती है।
4. यह जरुरी नहीं है कि सामाजिक व्यवस्था के कानून की सजा तुरंत लागू हो। परन्तु प्रकृति के कानून की सजा तुरंत मिलती है। अर्थात प्रकृति पहले से आगाह नहीं करती है कि मनुष्य कोई गलती कर रहा है। हमें अपनी गलती को स्वयं खोजना होता है। या यूँ कहें कि हमें वातावरण के परिप्रेक्ष्य अपनी स्वतंत्रता स्वयं निर्धारित करनी होती है। जो प्रकृति वातावरण के अनुसार बदलती रहती है।
इसलिए मनुष्य वातावरण के परिप्रेक्ष्य अपनी स्वतंत्रता को निर्धारित करने के लिए प्रयोग विधि का उपयोग करता है। प्रयोग विधि के अंतर्गत मनुष्य हस्तक्षेप करके प्रकृति के व्यवहार (प्रतिक्रिया) को समझने की चेष्टा करता है। व्यापक प्रभाव को समझने के लिए छोटे-छोटे प्रयोगों के परिणाम का गुणन किया जाता है। अप्राकृतिक घटनाओं के आंकड़े अर्थात अव्यवस्था को मापने से उस मानक व्यवस्था में मनुष्य की स्वतंत्रता से होने वाले परिवर्तन का आकलन होता है। चूँकि सामाजिक व्यवस्था किसी एक व्यक्ति की इच्छा पर तो संचालित नहीं होती है। व्यवस्था बनाए रखना एक सामूहिक निर्णय होता है। इसलिए सामाजिक व्यवस्था का कानून और प्रकृति के कानून में भिन्नता होने के बाद भी "सामाजिक व्यवस्था" विज्ञान के कार्यक्षेत्र की सीमा के अंतर्गत आती है। और अंग्रेजी में मनुष्य के स्वाभाव को नेचर (Nature) ही कहते हैं। मानव जाति और विज्ञान का अब तक का सम्पूर्ण विकास इसी शर्त की उपस्थिति में प्रयोग विधि द्वारा संभव हुआ है।
मूल रूप से इस शर्त की उपस्थिति में प्रयोग विधि का उपयोग किया जाता है। परन्तु याद रहे प्रयोग विधि के भी चार अलग-अलग रूप होते हैं। जिनका उद्देश्य उसको उपयोग में लाने वाले व्यक्ति अपने व्यवसाय (खोजी, विद्यार्थी, आम नागरिक, आविष्कारक) द्वारा निर्धारित करते हैं। कानून और व्यवस्था की उपस्थिति में वैकल्पिक साधनों और युक्तियों की खोज तथा कारण का घटना, प्रभाव और लक्षण के साथ संबंध खोजा जाता है। जल और वायु (ऑक्सीजन, नाइट्रोजन या कार्बन डाई ऑक्साइड) चक्र का अध्ययन भी इसी शर्त की उपस्थिति में किया जाता है। सामाजिक व्यवस्था के अंतर्गत आने वाली अर्थव्यवस्था और शासन/प्रशासन व्यवस्था में भी विज्ञान कार्य करता है। क्योंकि इस क्षेत्र में भी हम आंकड़ों के आधार पर (विकास आदि के विषय में) भविष्यवाणियां कर सकते हैं।
विज्ञान = भौतिकी, रासायनिकी, जैविकी, खगोलिकी, यांत्रिकी आदि3. क्रियाविधि और प्रणाली : मूलरूप में इस शर्त की उपस्थिति में परीक्षण विधि का उपयोग किया जाता है। आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु नई प्रणालियों के निर्माण, उनमें परिवर्तन और क्रियाविधि का निर्धारण किया जाता है। समस्याओं के निदान खोजने में इस शर्त की उपस्थिति अनिवार्य होती है। प्रणाली कैसे काम करेगी/करती है ? प्रणाली का प्रकार ? उस प्रणाली की उपयोगिता को निर्धारित करता है। अर्थात तकनीकी विकास में सैद्धांतिक क्रियाविधि की भूमिका निर्धारित की जाती है। जो प्रणाली के प्रकार को परिभाषित करती है। मुख्य रूप से यांत्रिकी, श्वसन और पाचन तंत्र तथा आवश्यकताओं की पूर्ति हेतू विकसित किया गया तंत्र का अध्ययन इसी श्रेणी में आता है। इस शर्त की उपस्थिति में हम कंप्यूटर, सभी इलेक्ट्रॉनिक्स तथा मशीनी उपकरण में काम करने वाले विज्ञान का अध्ययन करते हैं। और साथ ही क्रियाविधि के आधार संगत प्रणाली के निर्माण की संभावना को भी निर्धारित करते हैं।
कला = खेलकूद, चित्र, मूर्ति, संगीत, नृत्य, नाटक आदि
विज्ञान + कला = समाजशास्त्र, प्रबंधन, अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, तकनीक, चिकित्सा आदि
इस तरह से हम पाते हैं कि विज्ञान किसी न किसी रूप में हर जगह कार्य करता है। क्योंकि वहां प्रकृति कार्य करती है। और यह प्रकृति विशाल ब्रह्माण्ड को संचालित करने के लिए स्वयं छोटे-छोटे हिस्सों में तंत्रों/व्यवस्था/प्रणालियों में विभक्त हो जाती है। इसके बाबजूद वह "भेद न करने" का अपना गुणधर्म कभी और कहीं भी नहीं छोड़ती है। और इस प्रकार विज्ञान की सबसे महत्वपूर्ण शर्त होती है : "होना"। अर्थात जो है ही नहीं, उसके बारे में विज्ञान संभावना भी नहीं जताता है। फिर चाहे "जो भी हो" वह कृत्रिम हो या प्राकृतिक। वह किसी न किसी रूप में प्रकृति का ही अंग है। और वह किसी न किसी रूप में विज्ञान के कार्यान्वित होने की शर्त को (अवश्य) पूरा करता है।
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