अभिव्यक्ति का साधन के रूप में उपयोग करने की प्रवृत्ति हम मानवों में मानवता के साथ ही आ गई थी। हम जो कुछ भी अच्छा-बुरा अनुभव करते, उसे दूसरों के साथ साझा करते। न सिर्फ इसलिए कि हमें क्या अच्छा लगा और क्या बुरा लगा। बल्कि हम अपने अनुभवों को दूसरों के साथ इसलिए भी साझा करते रहे, ताकि हम जान सकें कि कहीं ऐसा ही कुछ सामने वाले को भी तो अनुभव नहीं हुआ ! यदि सामने वाले को भी ऐसा ही कुछ अनुभव हुआ है। तो वह ठीक-ठीक ऐसा ही अनुभव था या फिर अनुभवों में कुछ भिन्नता भी थी। मानवों में अनुभव साझा करने की प्रवृत्ति का विकास इसलिए भी अधिक हुआ। ताकि आपसी निर्भरता का विकास हो सके। अभिव्यक्ति की उत्पत्ति के पश्चात से ही और नए अनुभव जुड़ते रहे। और आगे चलकर हम जान गए कि हम मनुष्य इतनी कम उम्र में नए सिरे से शुरुआत करने पर न के बराबर का अनुभव ही पा सकते हैं। इसलिए हमने समाज के सहारे अनुभव साझा करने का काम शुरू किया। समय के साथ अभिव्यक्ति के माध्यमों में भी विकास हुआ। शुरूआती दिनों में जहाँ अभिव्यक्ति संगीत के जरिये फलफूल रही थी। वह आज विज्ञान की देहलीज तक आ पहुंची है। अनुभूति का यह सिलसिला विज्ञान की देहलीज पर यूँ ही नहीं आ पहुंचा। अभिव्यक्ति के इस माध्यम तक पहुँचने के पीछे बहुत सी अनुभूतियों और अनुभव का योगदान रहा है। इस माध्यम ने जहाँ भाषा के रूप में गणित का उपयोग किया। वहीं समझने की दृष्टी को दर्शन से प्राप्त किया। इसी विज्ञान के लचीलेपन का उपयोग करते हुए, हम मानवों ने अध्ययनों, अवलोकनों और प्रयोगों के निष्कर्षों को व्यक्तिगत अनुभव के रूप में दूसरों के सामने रखा। उन अनुभवों को दूसरों के सिर नहीं थोपा। ताकि विज्ञान के सहारे समाज और अधिक परिष्कृत और विकसित होता रहे।
मानव के अनुभव करने के शुरूआती दिनों में जब कभी वह स्वयं की उपस्थिति और इसके कारणों को समझने की कोशिश में लगा होता। तब वह प्रकृति के कार्यों को नज़र अंदाज़ नही कर पाता। और इसकी व्यापकता से हमेशा प्रभावित रहता। परन्तु जानने-समझने की इस कोशिश में वह इसे हमेशा सीमित ही पाता। इसका कारण हम मनुष्यों का नंगी आँखों से एक सीमा तक देख पाने की क्षमता ही थी। जो हमें यह सोचने में मज़बूर कर देती कि प्रकृति की ख़ूबसूरती यहीं तक है ! दूसरा कारण यह समझ में आता है कि जिसमें हम रहते है अर्थात पृथ्वी और उसके वातावरण का हमारे दिमाग में बनने वाला चित्रण जो आज की जानकारी के अनुसार बिलकुल गलत सिद्ध होता है। परन्तु उन मनुष्यों ने भी इस सृष्टि को अनंत ही कहा था। भले ही पृथ्वी और उसके वातावरण का चित्रण उनके दिमाग में कुछ भी क्यों न बनता रहा हो !
ब्रह्माण्ड को हम अभी तक जिस रूप में परिभाषित करते आए हैं। वह यह कि जिसका अस्तित्व हो ! चाहे वह हमसे कितना भी दूर क्यों न स्थित हो ! उसका धरातलीय स्तर कितना भी सूक्ष्म क्यों न हो ! सम्मलित रूप में वह ब्रह्माण्ड कहलाता है। यह परिभाषा कुछ वर्षों पहले दी हुई अवधारणाओं में से नहीं है। बल्कि हम मनुष्य इसे हज़ारों वर्षों से अपने दिमाग में इसी रूप में चित्रित करते आ रहे हैं। फलस्वरूप हम ब्रह्माण्ड को इसी रूप में स्वीकारना पसंद करेंगे। चाहे फिर ब्रह्माण्ड यह स्वरूप अस्तित्व में रखता हो या न रखता हो ! फिर हमें ब्रह्माण्ड के अवयवों और घटकों को ब्रह्माण्ड के इस स्वरुप के अनुरूप परिभाषित करना होता है। अर्थात जो अनंत है वह क्या है ? समय, ऊर्जा, पदार्थ या फिर अंतरिक्ष ही अनंत है ? कौन सा घटक ब्रह्माण्ड में एक रूपता लाता है ? ऊर्जा, पदार्थ या फिर अंतरिक्ष ही ब्रह्माण्ड में एक रूपता लाता है ? को हमारे द्वारा निर्धारित किया जाता है। दरअसल ब्रह्माण्ड को इस तरह से परिभाषित करने के पीछे भी एक तर्क है। क्योंकि इस तरह ब्रह्माण्ड को परिभाषित करने से ब्रह्माण्ड की सभी संभावित परिदृयों के वास्तव में अस्तित्व रखने की सम्भावना बनी रहती है। भले ही हमने उस वास्तविक ब्रह्माण्ड के परिदृश्य को संभावित परिदृश्य में शामिल कर लिया हो अथवा नहीं किया हो।
मनुष्यों की समझ विकसित होने से हम मनुष्यों के सामने ब्रह्माण्ड को इस तरह से परिभाषित करने पर कुछ समस्याएं सामने आती हैं। जो कि अवयवों और घटकों से सम्बंधित होती हैं। अनंत और एक रूपता की समझ विकसित करने की समस्या के अलावा भी ब्रह्माण्ड की अवस्था को लेकर प्रश्न उठते हैं। क्योंकि जब हम ब्रह्माण्ड में जो भी अस्तित्व रखता है को सम्मलित कर देते हैं। तब ब्रह्माण्ड के लिए बाह्य कारक की अनुपस्थिति कमी के रूप में नहीं अपितु नए प्रश्नों के साथ समस्या के रूप में सामने आती है। जिनका जबाब देना आसान नहीं होता। क्योंकि इस स्थिति में हम उदाहरण के लिए रासायनिक क्रियाओं का सहारा नहीं ले सकते। और भौतिक क्रियाओं में भी उन क्रियाओं को उदाहरण के रूप में लिया जाता है। जो एक व्यवस्था के लिए संचालित होती हैं। क्योंकि उदाहरण में बाह्य कारक की अनुपस्थिति अनिवार्य है। तो क्या फिर ब्रह्माण्ड की अवस्था में परिवर्तन नहीं होता है ? क्योंकि जड़त्व के नियम अनुसार अवस्था में परिवर्तन के लिए बाह्य बल आवश्यक होता है। इसलिए परिभाषा भी बनी रहे और नियमों के उल्लंघन के बिना ब्रह्माण्ड की अवस्था भी परिवर्तित होती रहे। इसके लिए हमें अंतरिक्ष को अनंत के लिए परिभाषित करना होता है।
ब्रह्माण्ड में सब कुछ निहित होने की परिभाषा के अनुरूप बाह्य कारक की अनुपस्थिति ब्रह्माण्ड के अकेले होने का संकेत देती है। और अनंत अंतरिक्ष की मौजूदगी ब्रह्माण्ड की अवस्था परिवर्तन का संकेत देती है। इन दोनों तथ्यों द्वारा ब्रह्माण्ड का जो परिदृश्य सामने आता है वह दोलित्र ब्रह्माण्ड का परिदृश्य है। अर्थात ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और उसका विनाश स्वयं से होता है। इस परिदृश्य में ब्रह्माण्ड के विस्तार के उपरांत भी बाह्य कारक की अनुपस्थिति में ब्रह्माण्ड का संकुचन संभव है। परन्तु संकुचन के उपरांत पुनः विस्तार की अवधारणा ऊष्मा गतिकी के द्वितीय नियम का उल्लंघन कर देती है। फलस्वरूप ब्रह्माण्ड की पुनः उत्पत्ति के लिए बाह्य कारक की उपस्थिति आवश्यक हो जाती है। और इस तरह इकलौते ब्रह्माण्ड की अवधारणा ब्रह्माण्ड के समूह होने की सम्भावना को तलाशने लगती हैं। इकलौते ब्रह्माण्ड की अवधारणा पूर्ण रूप से सैद्धांतिक अवधारणा है। जो समय-समय पर प्रयोगों द्वारा परिष्कृत होती रहती है। साथ ही प्रयोगों द्वारा प्रमाणित तथ्य ब्रह्माण्ड के संभावित परिदृश्यों की संख्या में बढ़ोत्तरी कर देते हैं। परन्तु नए संभावित परिदृश्य भी ब्रह्माण्ड के मूल संभावित परिदृश्यों के इर्द-गिर्द ही घूमते नज़र आते हैं।
दर्शन के दर्शन ! :)
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