विज्ञान का उद्भव तब हुआ, जब मनुष्य ने अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए खोजना प्रारंभ किया। खोजे हुए ज्ञान को उपयोग में लाना सीखा। प्रकृति की सुंदरता के रहस्य को जानना शुरू किया। परन्तु विषय के रूप में विज्ञान का विकास समाज के अस्तित्व में आ जाने के बाद ही संभव हो सका है। लोगों ने आपस में समस्याओं को सुलझाने में अपने-अपने अनुभव साझा किये हैं। तब जाकर वैकल्पिक युक्तियों/तरीकों की खोज ने विज्ञान को परिभाषित किया है। और इसलिए ऐसा कहा जाता है कि विज्ञान एक पद्धति है। जो कार्य एक व्यक्ति से संभव नहीं हो सकता था। उस कार्य को लोगों ने मिलकर करना सीखा है। जिससे कि लोगों में आपसी समझ विकसित हुई है। और इस तरह से समय के साथ-साथ विज्ञान में भिन्न-भिन्न वैज्ञानिक विधियों का उदय हुआ है। विज्ञान का यह विकास कला, दर्शन, गणित और भाषा की अनुपस्थिति में असंभव था। विज्ञान ने कभी विश्व के किसी हिस्से में सभ्यता का विकास किया है। तो कभी विश्व के किसी दूसरे हिस्से में सभ्यता विकास किया है। एक सभ्यता से दूसरी सभ्यता में विज्ञान और तकनीक के प्रचार-प्रसार का कार्य व्यापारी लोगों द्वारा होता आया है। ऐसा नहीं है कि व्यापारी लोग विज्ञान के प्रचार-प्रसार करने के लिए बाध्य होते थे। या वे विज्ञान के प्रचार-प्रसार की इच्छा रखते थे। बल्कि यह प्रचार-प्रसार व्यापार के लिए की जाने वाली लम्बी-लम्बी यात्राओं के माध्यम से स्वतः होता गया है।
विज्ञान में प्रयोग विधि द्वारा चरघातांकी विकास हुआ है। जिसको विज्ञान में अधिक से अधिक उपयोग में लाने का सुझाव लगभग 800 वर्ष पहले दे दिया गया था। परन्तु यह विधि लगभग 400 वर्ष पहले से चलन में आई है। सभ्यताओं के विकास और उसके पतन दोनों में विज्ञान की भूमिका होती है। विज्ञान को किस तरह से उपयोग में लाना चाहिए ? इस विषय में लम्बी चर्चा की जा सकती है। परन्तु सामाजिक प्राणी होने के नाते विज्ञान के विकास में हम मनुष्यों के क्या-क्या कर्तव्य होने चाहिए ? आज का यह लेख इसी विषय पर लिखा गया है। जो कर्तव्य निम्न हैं।
- हमें निम्न संभावनाओं के रहते हुए भी खोज या अविष्कार को समाज के सामने लाना चाहिए।
1. भविष्य में स्वयं की खोज या तथ्य के गलत होने या अविष्कार के मूलस्वरूप में परिवर्तन की संभावना रहने पर
2. पुरानी सामाजिक धारणाओं के खंडित होने या किसी महान वैज्ञानिक/नेता की खोज/सिद्धांत के गलत होने की संभावना रहने पर
3. खोज या अविष्कार के दुरुपयोग होने की संभावना रहने पर भी
स्पष्टीकरण : विज्ञान की अभिधारणा के अनुसार "सभी पुराने सिद्धांत विषय संबंधी नए सिद्धांत के उपसिद्धांत कहलाते हैं।" अर्थात सिद्धांतों में संशोधन और विस्तार किया जा सकता है। इसलिए सिद्धांतों पर आधारित पुराने तथ्य और माप नए सिद्धांत के अनुसार गलत हो सकते हैं। चूँकि यही विज्ञान की प्रकृति है और विज्ञान इसी तरह से कार्य करता है इसलिए हमें गलत होने की संभावना रहने पर भी खोज और आविष्कार को समाज के सामने लाना चाहिए। फिर चाहे समाज की परम्पराएं (देश-काल के अनुसार) और धारणाएं बनी रहें या खंडित हो जाएँ।
2. पुरानी सामाजिक धारणाओं के खंडित होने या किसी महान वैज्ञानिक/नेता की खोज/सिद्धांत के गलत होने की संभावना रहने पर
3. खोज या अविष्कार के दुरुपयोग होने की संभावना रहने पर भी
स्पष्टीकरण : विज्ञान की अभिधारणा के अनुसार "सभी पुराने सिद्धांत विषय संबंधी नए सिद्धांत के उपसिद्धांत कहलाते हैं।" अर्थात सिद्धांतों में संशोधन और विस्तार किया जा सकता है। इसलिए सिद्धांतों पर आधारित पुराने तथ्य और माप नए सिद्धांत के अनुसार गलत हो सकते हैं। चूँकि यही विज्ञान की प्रकृति है और विज्ञान इसी तरह से कार्य करता है इसलिए हमें गलत होने की संभावना रहने पर भी खोज और आविष्कार को समाज के सामने लाना चाहिए। फिर चाहे समाज की परम्पराएं (देश-काल के अनुसार) और धारणाएं बनी रहें या खंडित हो जाएँ।
विज्ञान न ही अच्छा होता है और न ही बुरा होता है। हमारी आवश्यकताएँ उसकी उपयोगिता को अच्छी या बुरी बनाती हैं। इसलिए विज्ञान के दुरुपयोग होने की संभावना रहने पर भी हमें खोज और आविष्कार को समाज के सामने लाना चाहिए।
- यदि किसी ज्ञात सिद्धांत के असंगत/अपवाद स्वरूप हमें घटना या भौतिकता के किसी रूप की जानकारी मिलती है तो हमें उसकी चर्चा समाज में करनी चाहिए।
स्पष्टीकरण : सामाजिक प्राणी होने के नाते यह हमारा कर्तव्य है कि जब कभी हमें किसी ज्ञात सिद्धांत के अपवाद में कोई घटना या भौतिकता के किसी रूप (अवयवी कण, खगोलीय पिंड, निकाय या निर्देशित तंत्र) की जानकारी मिलती है तो हमें उसकी चर्चा समाज में करनी चाहिए। क्योंकि अपवाद वे उदाहरण हैं जो हमें सिद्धांत या नियम में संशोधन या विस्तार करने के लिए बाध्य करते हैं। ताकि वैज्ञानिक दृष्टिकोण द्वारा सटीकता के साथ भविष्यवाणी की जा सके।
विज्ञान एक पद्धति है। फलस्वरूप किसी भी सिद्धांत या नियम को तब तक गलत नहीं कहना चाहिए। जब तक हमें उस सिद्धांत या नियम में सुधार के बाद सिद्धांत या नियम का संशोधित या विस्तृत रूप ज्ञात नहीं हो जाता है। या फिर हमें दूसरे नियम ज्ञात नहीं हो जाते हैं। क्योंकि विज्ञान के कार्यक्षेत्र की शर्तों के आधार पर नियम किसी न किसी रूप में अवश्य लागू रहते हैं।
विज्ञान एक पद्धति है। फलस्वरूप किसी भी सिद्धांत या नियम को तब तक गलत नहीं कहना चाहिए। जब तक हमें उस सिद्धांत या नियम में सुधार के बाद सिद्धांत या नियम का संशोधित या विस्तृत रूप ज्ञात नहीं हो जाता है। या फिर हमें दूसरे नियम ज्ञात नहीं हो जाते हैं। क्योंकि विज्ञान के कार्यक्षेत्र की शर्तों के आधार पर नियम किसी न किसी रूप में अवश्य लागू रहते हैं।
- किसी भी दावा का खंडन उसी तरह से किया जाना चाहिए। जिस तरह से दावा किया जाता है। अर्थात वैज्ञानिक दृष्टिकोण द्वारा कारण और उसके प्रभाव के विषय में चर्चा (तर्क-वितर्क द्वारा) की जानी चाहिए।
स्पष्टीकरण : प्रत्येक दावा के पीछे विषय संबंधी आंकड़े या फिर दावा करने वाले का अपना-अपना अनुभव होता है। इसलिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण के आधार पर कारण, घटना और उसके प्रभाव को चर्चा में शामिल करके दावे का खंडन करना चाहिए। "मुझे यह सही नहीं लगता है" सिर्फ इतना कहने से दावा का खंडन नहीं होता है। विषय के अपवाद को उदाहरण रूप में लाना जरुरी होता है। ताकि सकारात्मक चर्चा द्वारा संभव है कि "एकीकरण" की आवश्यकता पड़ जाए। और एक नए सिद्धांत का प्रतिपादन हो जाए।
किसी भी चीज पर इसलिए विश्वास मत करें क्योंकि ऐसा तुम्हें बताया गया है, या आपने स्वयं यही सोचा था !! तुम्हे तुम्हारे गुरु ने कहा है इसलिए भी किसी बात पर विश्वास मत करें। गुरु के प्रति सम्मान की भावना के कारण भी नहीं करें। लेकिन पूरे परीक्षण तथा विश्लेषण के बाद जो तुम्हें कल्याणकारी लगे, सभी के लिए लाभकारी और हितकारी प्रतीत हो। उसी सिद्धांत पर विश्वास करो और उससे संलग्न रहकर उसे अपना मार्गदर्शक बनाओ। - भगवान बुद्ध का उपदेश (सतत प्रश्न उठाने को लेकर - कालामसुत्त से)
![]() |
कर्तव्य पालन के बिना अधिकार की मांग अनुचित है। "विज्ञान के विकास में : हमारे अधिकार" अगले लेखों में |
- जब तक हम घटना की वास्तविकता को नहीं जान लेते हैं। तब तक हमें किसी भी घटना को भ्रम नहीं कहना चाहिए।
स्पष्टीकरण : जिस प्रकार प्रकाश की अनुपस्थिति में अंधकार का, वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अभाव में अंधविश्वास का तथा पदार्थ की अनुपस्थिति में रिक्तता का बोध होता है। ठीक उसी प्रकार वास्तविकता के अभाव में लोग भ्रमित हो जाते हैं। इसलिए यह हमारा कर्तव्य बनता है कि हम लोगों को भर्मित कहे बिना उनको वास्तविकता से अवगत कराएं। ताकि आगे चलकर ये लोग भी वैज्ञानिक समाज के विकास में सहयोग दे सकें।
- वैकल्पिक साधनों और युक्तियों की खोज सदैव करते रहना चाहिए।
स्पष्टीकरण : विज्ञान एक पद्धति है। जिसका आशय विकल्प से होता है। भिन्न-भिन्न परिस्थितियों (देश-काल) के रहते, एक ही विधि या प्रक्रिया के उपयोग से एक समान परिणाम प्राप्त करना मुश्किल होता है। इसके अलावा निष्कर्ष को लेकर एक मत होना भी मुश्किल होता है। इसलिए विज्ञान में वैकल्पिक युक्तियों और साधनों की खोज की जाती है। तथा विधि और प्रक्रिया के चुनाव को लेकर विज्ञान में बाध्यता नहीं होती है।
- नए और वैकल्पिक साधनों का उपयोग करने में संकोच नहीं करना चाहिए।
स्पष्टीकरण : समाज के विकास के लिए जरूरी है कि हम अधिक से अधिक प्रयोग करें। प्रयोग के तौर पर नए-नए आविष्कारों को उपयोग में लाएं। ताकि उन आविष्कारों की उपयोगिता तथा उनके प्रभाव की माप को निर्धारित किया जा सके। और विज्ञान और तकनीक का भविष्य में सदुपयोग किया जा सके। और उसके नकारात्मक प्रभाव को कम किया जा सके।
स्पष्टीकरण : वैज्ञानिक दृष्टिकोण का उपयोग न केवल विज्ञान में बल्कि तकनीक विकसित करने में भी किया जाता है। अर्थात जो (भी) है, उसको खोजने और जो नहीं है, उसको साकार रूप देने या उसके होने की संभावना के प्रभाव का अध्ययन करने में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का उपयोग किया जाता है। इसीलिए समाज में विज्ञान से अधिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण का महत्व होता है। जो समाज में सामंजस्य स्थापित करने में सहयोगी सिद्ध होता है। और जो एक आदर्श समाज के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण घटक है।
स्पष्टीकरण : विज्ञान के इतिहास में ध्यान देने पर ज्ञात होता है कि किसी भी खोज की यथार्थता उस ज्ञान की उपयोगिता को निर्धारित करती है। इसलिए यथार्थता को खोजना जरुरी होता है। संभावित, लगभग मान (आंकड़े) या नजदीकी ज्ञान को उपयोग में लाना मुश्किल होता है। इसलिए ज्ञान की यथार्थ को खोजना और उसको प्रमाणित करना समाज के हित में होता है।
- प्रायोगिक निष्कर्ष में पूर्वाग्रह को शामिल नहीं करना चाहिए।
स्पष्टीकरण : बेशक कोई भी प्रयोग बिना किसी उद्देश्य के नहीं किया जाता है। परन्तु प्रायोगिक निष्कर्षों में अपनी इच्छा से मनमाफिक निष्कर्ष अलग से नहीं जोड़ना चाहिए और न ही उन्हें परिवर्तित करना चाहिए। इसे ही पूर्वाग्रह से ग्रसित होना कहते हैं। इसके अलावा विधि से अलग या प्रयोग को प्रभावित करने वाले अनावश्यक कार्यों को प्रयोग से दूर रखना चाहिए। ताकि प्रयोग के दौरान उनमें प्रतिकूल प्रभाव न पड़े। और समाज सही अर्थों में यथार्थ को जान सके।
- वैज्ञानिक निष्कर्षों के साथ-साथ अध्ययन के कार्यक्षेत्र की सीमा, उपयोग में लाई गई वैज्ञानिक विधि और कार्यविधि के सिद्धांत के बारे में भी समाज को अवगत कराना चाहिए।
स्पष्टीकरण : जब हम सिर्फ वैज्ञानिक निष्कर्षों को समाज के सामने रखते हैं तो उनकी विश्वसनीयता संदेह के घेरे में होती है। परन्तु जब हम अध्ययन के कार्यक्षेत्र की सीमा, उपयोग में लाई गई वैज्ञानिक विधि और कार्यविधि के सिद्धांत के साथ-साथ खोज का दावा और निष्कर्ष को समाज के सामने रखते हैं। तो इन निष्कर्षों की विश्वसनीयता प्रमाणित मानी जाती है। क्योंकि तब हमें उपयोग में लाई गई वैज्ञानिक विधि के बारे में जानकारी होती है। जिसके दोहराव से हम उन निष्कर्षों की जाँच बार-बार कर सकते हैं। आंकड़े में होने वाले परिवर्तन को पहले से निर्धारित कर सकते हैं। और सबसे बड़ी बात उस खोज की यथार्थता को उपयोगिता द्वारा सिद्ध कर सकते हैं।
- मानव जाति के हित को ध्यान में रखकर के ही प्रयोग और परीक्षण विधि का उपयोग किया जाना चाहिए।
स्पष्टीकरण : विज्ञान में प्रयोग और परीक्षण विधि ऐसी हैं जिनका उपयोग मानव जाति को सीधे प्रभावित करता है। न सिर्फ खोज करने के दौरान बल्कि उस ज्ञान की उपयोगिता को परखने के दौरान भी ये दोनों विधियां मानव जाति को प्रभावित करती हैं। इसलिए इन विधियों का उपयोग छोटे-छोटे स्तर पर करना चाहिए। ताकि तकनीक की सीमाओं को निर्धारित किया जा सके। हालाँकि भारत में लगभग सभी योजनाएं प्रयोग के तौर पर छोटे स्तर पर प्रारम्भ की जाती हैं। यह एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण है।
0 Comments