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सापेक्षता की समझ
लेखक : अज़ीज़ राय, प्रकाशन की तारीख : जून 28, 2016 | टिप्पणियाँ : 1 @, वैज्ञानिक कार्यविधियाँ, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, शिक्षा और समाज
अंग्रेजी के भाषाविदों का वैज्ञानिक दृष्टिकोण देखिये कि उन्होंने सार्वभौमिक सत्य (Universal Truths) और आदतों (Habits) का वर्गीकरण प्रेजेंट इंडेफिनिट टेंस (Present Indefinite Tense) के लिए किया।
क्योंकि वे बहुत अच्छे से जानते हैं कि सार्वभौमिक सत्य (Universal Truths) और आदत समय के साथ बदलते रहते हैं।
चूंकि समय ब्रह्माण्ड में एक समान नहीं बंटा है। इसलिए भविष्य को विल (Will) और शैल (Shall) में वर्गीकृत करने का यही कारण था कि स्पष्ट हो सके कि हम वाक्यों में जिसका (जिस बारे में) जिक्र कर रहें हैं। वह उसी काल-क्षेत्र में उपस्थित है या किसी अन्य दूसरे काल-क्षेत्र में उपस्थित है।
भविष्य का सीधा सा अर्थ निकलता है कि जो अभी घटित नहीं हुआ है। संभवता कुछ समयांतराल बाद घटित होगा। परन्तु जब आप भविष्य में कंटीन्यूअस (Continuous) और परफेक्ट (Perfect) टेंस के वाक्यों पर गौर करेंगे। तो आप पाएंगे कि वास्तव में वे भविष्यकाल के वाक्य हैं ही नहीं। क्योंकि उन वाक्यों से इस बात का बोध होता है कि घटना या तो संभवतः हो चुकी है या चल रही है। फर्क सिर्फ इतना सा है कि घटना, किसी दूर काल-क्षेत्र में घटित हो रही है या हो चुकी है। जहां पहुँचने में समय लगता है। अर्थात जब वाक्य की संदिग्धता वहां जाकर प्रमाणित होगी। तब वाक्य को कहे काफी समय व्यतीत हो चुका होगा। इस आधार पर भविष्य में भी कंटीन्यूअस (Continuous) और परफेक्ट (Perfect) टेंस होता है। आप अपने मन से कोई भी उदाहरण ले सकते हैं। जिस वाक्य के अंत में कंटीन्यूअस (Continuous) टेन्स के लिए "रहा होगा/रही होगी" तथा परफेक्ट (Perfect) टेंस के लिए "चुका होगा/चुकी होगी" आता है।
1. मम्मी भोजन पका चुकी होंगी।
2. वह मैदान में खेल रही होगी।
3. शिक्षक स्कूल से जा चुके होंगे।
4. आप कैसे हैं ? आशा करता हूँ आप स्वस्थ होंगे।
ये घटनाएं भविष्य की संभावना को व्यक्त नहीं कर रही हैं। बल्कि किसी दूसरे काल-क्षेत्र में घटित होने वाली घटनाओं या कार्य की संभावना को व्यक्त कर रही हैं।
याद रहे यह पहला उदाहरण है जब हम समय को दूरी के द्वारा व्यक्त कर रहे हैं। इसके पहले तक आपने दूरी को समय के द्वारा अभिव्यक्त करते, कईयों बार सुना होगा। उदाहरण : अरे, स्टेशन बस पांच मिनट की दूरी पर है। कुछ याद आया ??
अंधविश्वास, भ्रम और मनोरोग पर समाज का व्यवहार
लेखक : अज़ीज़ राय, प्रकाशन की तारीख : जून 28, 2016 | टिप्पणियाँ : 1 परिभाषित विज्ञान, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, शिक्षा और समाज, ANDHVISHWAS OR BHRAM
याद रहे हमने पहले भी लिखा है कि अंधविश्वास का जन्म वैज्ञानिक दृष्टिकोण के आभाव में होता है। और भ्रम का जन्म वास्तविकता को परखने की क्षमता के आभाव में होता है। वास्तव में अंधविश्वास और भ्रम का अपना कोई अस्तित्व नहीं होता है। जिस प्रकार प्रकाश की अनुपस्थिति में अंधकार का बोध होता है ठीक उसी प्रकार क्रमशः वैज्ञानिक दृष्टिकोण और वास्तविकता को परखने की क्षमता के आभाव में अंधविश्वास और भ्रम मनुष्य को जकड़ लेता है।
मनुष्य न ही जन्मजात अंधविश्वासी होता है और न ही वह जन्म से भ्रमित रहता है। मनुष्य में जब-जब वास्तविकता को परखने की क्षमता का आभाव होता है मनुष्य तब-तब संबंधित घटनाओं को लेकर भ्रमित हो जाता है। अर्थात यदि कोई व्यक्ति किसी घटना की वास्तविकता जानता है। तो जरुरी नहीं है कि वह व्यक्ति अब कभी भी भ्रमित नहीं होगा !! आप जितना अधिक और अच्छे से घटनाओं का विश्लेषण करते जाएंगे। आपके भ्रमित होने की संभावना उतनी ही कम होती जाएगी। परन्तु आप भ्रमित होने से हमेशा के लिए नहीं बच सकते हैं। अंधविश्वास ऐसी खाई है जिसमें एक बार मनुष्य फंस जाता है। वह उसमें फंसता चला जाता है। उसे इस बात की खबर तक नहीं होती है। क्योंकि आगे चलकर मनुष्य उसमें सहजता ढूंढ लेता है। वह विचार करने से भी कतराने लगता है। क्योंकि अंधविश्वास, भ्रम और मनोरोग जितना नुक्सान समाज का करता है। उतना ही नुकसान व्यक्तिगत रूप से मनुष्य का भी होता है। इसलिए मनुष्य न सिर्फ स्वयं को अंधविश्वासी कहलवाने से झिझकता है। बल्कि वह अब तक हुए नुक्सान का आंकलन करने से भी कतराता है। आखिर अंधविश्वास का जन्म लालच और देखा-सीखी करने से ही तो होता है।
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स्रोत |
सबसे महत्वपूर्ण होता है अंधविश्वास, भ्रम और मनोरोग पर समाज की प्रतिक्रिया कैसी है ? यदि वास्तव में कोई व्यक्ति अंधविश्वास, भ्रम और मनोरोग से ग्रसित है तो समाज को चाहिए कि वह ऐसे व्यक्तियों के साथ संवेदना के साथ पेश आए। ग्रसित लोगों से हमें हमदर्दी रखना चाहिए। उनको आवश्यक उपचार उपलब्ध कराना चाहिए। न कि उनका विरोध करना चाहिए। और न ही उनको ताने मारना चाहिए। परन्तु जो व्यक्ति अंधविश्वास, भ्रम और मनोरोग से ग्रसित व्यक्तियों का विरोध करते हैं। समस्या गिनाने के बाद भी उनका उपचार नहीं जानते हैं। हमें ऐसे लोगों से सचेत रहने की आवश्यकता है। क्योंकि तब ऐसे लोगों की मंशा पर संदेह होता है।
अंधविश्वास, भ्रम और मनोरोग पर समाज की प्रतिक्रिया कैसी होनी चाहिए ? इस विषय पर प्रयासरत सफल-असफल लोगों से मैंने चर्चाएं कीं। और मेरा व्यक्तिगत 8 वर्ष का अनुभव भी यही कहता है कि हमें अंधविश्वास और भ्रम का समाधान/निदान आभाव की पूर्ति द्वारा करना चाहिए। अर्थात वैज्ञानिक दृष्टिकोण के आभाव की पूर्ति से अंधविश्वास को और वास्तविकता को परखने की क्षमता के आभाव की पूर्ति से भ्रम को दूर करना चाहिए। तथा मनोरोगियों के साथ अच्छा व्यव्हार करना चाहिए। और जरुरत पढ़ने पर मनोचिकित्सकों द्वारा इलाज की आवश्यकता की पूर्ति करवानी चाहिए। मनोरोगियों के निम्न लक्षण होने के चलते हमें उनसे हमदर्दी और संवेदना के साथ पेश आना चाहिए। हमें उनके साथ आम रोगियों की तरह ही पेश आना चाहिए।
1. मनोरोगी अपना अनुभव तो साझा करता है परंतु उस अनुभव के विश्लेषण को सुनना पसंद नहीं करता है।
2. वह घटना और उसके परिणाम को एक रूप में देखता है। वह घटना को घटक और कारण के रूप में छिन्न-भिन्न होते नहीं देख सकता है।
3. संकुचित सोच भी मनोरोगी का एक लक्षण है। परन्तु याद रहे संकुचित सोच का मतलब सीमित सोच नहीं होता है। क्योंकि उम्र के साथ-साथ लगभग प्रत्येक व्यक्ति की सोच सीमित हो जाती है। सीमित सोच का कारण सिर्फ शारीरिक कमजोरी या कमी नहीं है। बल्कि एक उम्र के बाद किसी भी व्यवसाय या नौकरी का चुनाव और उसी दिशा में आगे बढ़ने की इच्छा तथा दूसरे क्षेत्र में नाम कमाने में लगने वाला समय भी इन्ही कारणों में आता है।
रोग के पुराने होने तथा उपचार के लिए असफल प्रयत्नों की संख्या और उनका तरीका भी लक्षणों में बदलाव ला सकता है। ये उभयनिष्ठ लक्षण हैं बाँकी तरह-तरह की बीमारी की पहचान के लिए अलग-अलग लक्षण होते हैं।
हमने अनुभव किया है कि खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में जब लोग बीमारी से गुजरते हैं। उसी दौरान सगे-संबंधी या परिचित व्यक्ति मरीजों को ताने मारते हैं। शायद उनके लिए यह एक अच्छा मौका होता है। फलस्वरूप दवाइयों द्वारा बीमारी में सुधार की दर बहुत कम हो जाती है। तब मरीज मानसिक और शारीरिक दोनों तरह से कमजोर होने लगता है। मैंने इसी केस में एक मौत होते तक देखा है। ताने मुख्य रूप से धार्मिक, सामाजिक, पुराने पारिवारिक क्रियाकलापों/विवादों आदि से संबंधित होते हैं। जिनका मरीज की बीमारी सी कतई कोई संबंध नहीं होता है। यह ताने मारने वालों की ठीस या उनका आपसी कोई पुराना आर्थिक मामला होता है।
परन्तु मनोरोगी के स्थान पर जब आप अंधविश्वास और भ्रम से ग्रसित लोगों को (सिर्फ) ताने मारते हो। उनसे हमदर्दी से पेश नहीं आते हो। तो एक समय के बाद ग्रसित लोगों को अंधविश्वासी या भ्रमित कहने का कोई अर्थ नहीं रह जाता है। फिर वे इस छाप को सहज रूप से स्वीकार लेते हैं। फिर उनमें सुधार की संभावना पहले की अपेक्षा बहुत कम हो जाती है। इसलिए सामाजिक प्राणी होने के नाते ग्रसित लोगों से अच्छा व्यव्हार करना चाहिए।
इसलिए आप भी सजग रहें। समाज को जागरूक बनाएं। भ्रमित और मनोरोगी व्यक्तियों के साथ हमदर्दी रखें। और उनको भूल से भी नीचा नहीं दिखाएँ। लोगों को अंधविश्वास, भ्रम और मनोरोग से उबरने के लिए उन्हें समय दें। कृपया जल्दी-जल्दी मत करें। इन सब के निदान/उपचार में समय लगता है।
विज्ञान के कार्यान्वित होने की शर्तें
लेखक : अज़ीज़ राय, प्रकाशन की तारीख : जून 16, 2016 | टिप्पणियाँ : 0 एकीकरण, परिभाषित विज्ञान, वैज्ञानिक कार्यविधियाँ
इसके पहले के लेख में हमने देखा था कि प्रकृति को एक व्यवस्था के रूप में जाना जाता है। जो सूक्ष्म धरातल के स्तर से लेकर खगोलीय धरातल के स्तर तक व्यवस्था बनाए रखती है। इसके बाबजूद हम मनुष्य, जीव-जंतु और पेड़-पौधे विकास करने के लिए स्वतंत्र होते हैं ! क्या यह "पूर्ण स्वतंत्रता" है ? यदि इस प्रश्न का उत्तर "हाँ" में है तब तो ठीक है। परन्तु यदि इस प्रश्न का उत्तर "नहीं" में है, तब तो एक प्रश्न और उठता है कि इस स्वतंत्रता की सीमा क्या (कहाँ तक) है ? प्रकृति इस विशाल ब्रह्माण्ड को कैसे संचालित करती है ? विज्ञान के कार्यान्वित होने की निम्न लिखित शर्तें हैं।
1. नियम, नियतांक और सामंजस्य : जब मनुष्य को नियमितता का आभास होने लगा। तब मनुष्य ने अपने प्रेक्षणों में पाया कि कुछ तो है जिसकी पुनरावृत्ति होती है। कुछ तो है जिसका क्रम निश्चित होता है ! अर्थात नियमित है। तब जाकर मनुष्य ने प्रकृति में नियमित और नियतांक होने का महत्व समझा। क्योंकि इस आधार पर निश्चित समय के बाद होने वाली घटनाओं की भविष्यवाणी करना संभव होता है। नियम और नियतांक द्वारा असंबंधित प्रतीत होने वाले भौतिकता के रूपों में आपसी संबंध की खोज की जाती है। क्योंकि ये नियम और नियतांक ही हैं, जो भौतिकता के विभिन्न रूपों में सामंजस्य स्थापित करते हैं। फलस्वरूप हमें सामंजस्य से निर्मित तंत्रों का ज्ञान/बोध होता है। मुख्य रूप से इस शर्त की उपस्थिति में प्रेक्षण विधि का उपयोग किया जाता है। इस विधि में लम्बे समय तक आंकड़े एकत्रित किये जाते हैं। और विश्लेषण द्वारा असंबंधित प्रतीत होने वाले भौतिकता के रूपों में आपसी संबंध खोजा जाता है। परन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि इस शर्त की उपस्थिति में सिर्फ प्रेक्षण विधि का ही उपयोग किया जाता है। अन्य वैज्ञानिक विधियों और प्रक्रियाओं का उपयोग करना भी संभव होता है। परन्तु जब एक से अधिक विधियों और प्रक्रियाओं द्वारा एक समान निष्कर्ष प्राप्त होते हैं। तो निष्कर्ष अधिक मान्य कहलाते हैं।
तंत्र में नियम और नियतांक होने की शर्त पूरी होने पर आगमन विधि के द्वारा सिद्धांतों का सरलीकरण किया जाता है। ताकि नियम और नियतांकों के आधार पर सूक्ष्म धरातल में और सुदूर स्थित प्रतिरूप और प्रतिमानों की खोज की जा सके। केप्लर के नियम इसका सबसे अच्छा उदाहरण है। जिसे प्रारम्भ में सिर्फ मंगल ग्रह के लिए प्रतिपादित किया गया था। जिसका बाद में चलकर सरलीकरण किया गया है। क्योंकि ये नियम और तंत्रों के नियतांक सभी खगोलीय तंत्रों में लागू पाए जाते हैं। सौर परिवार के सभी ग्रहों का आपसी और सूर्य के साथ सामंजस्य तथा इलेक्ट्रॉन्स का आपसी और नाभिक के साथ सामंजस्य से जिन भिन्न-भिन्न तंत्रों का बोध होता है। ये तंत्र नियमों और नियतांकों की ही देन होते हैं।
2. कानून और व्यवस्था : जिस प्रकार सामंजस्य के लिए नियम और नियतांक तथा प्रणाली के लिए क्रियाविधि जिम्मेदार होती है। ठीक उसी प्रकार व्यवस्था बनाए रखने के लिए कानून जिम्मेदार होता है। वातावरण प्रत्येक व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण घटक होता है। और यही महत्वपूर्ण घटक स्वतंत्रता और बाध्यता दोनों की सीमा को निर्धारित करता है। कानून, सामाजिक व्यवस्था का भी घटक है और प्रकृति जिसे हम एक व्यवस्था के रूप में जानते हैं उसका भी घटक है। परन्तु सामाजिक व्यवस्था और प्रकृति दोनों के कानून में काफी भिन्नताएं हैं।
1. जहाँ सामाजिक व्यवस्था का कानून सुनवाई करता है। वहीँ प्रकृति का कानून सुनवाई नहीं करता है।
2. सामाजिक व्यवस्था का कानून कई कारणों से भेदभाव करता है और विशेष परिस्थिति में छूट भी देता है। परन्तु प्रकृति का कानून न ही भेदभाव करता है और न हीं कोई छूट देता है।
3. इसलिए सामाजिक व्यवस्था का कानून सबूत मांगता है। जबकि प्रकृति के कानून को सबूत की आवश्यकता नहीं होती है।
4. यह जरुरी नहीं है कि सामाजिक व्यवस्था के कानून की सजा तुरंत लागू हो। परन्तु प्रकृति के कानून की सजा तुरंत मिलती है। अर्थात प्रकृति पहले से आगाह नहीं करती है कि मनुष्य कोई गलती कर रहा है। हमें अपनी गलती को स्वयं खोजना होता है। या यूँ कहें कि हमें वातावरण के परिप्रेक्ष्य अपनी स्वतंत्रता स्वयं निर्धारित करनी होती है। जो प्रकृति वातावरण के अनुसार बदलती रहती है।
इसलिए मनुष्य वातावरण के परिप्रेक्ष्य अपनी स्वतंत्रता को निर्धारित करने के लिए प्रयोग विधि का उपयोग करता है। प्रयोग विधि के अंतर्गत मनुष्य हस्तक्षेप करके प्रकृति के व्यवहार (प्रतिक्रिया) को समझने की चेष्टा करता है। व्यापक प्रभाव को समझने के लिए छोटे-छोटे प्रयोगों के परिणाम का गुणन किया जाता है। अप्राकृतिक घटनाओं के आंकड़े अर्थात अव्यवस्था को मापने से उस मानक व्यवस्था में मनुष्य की स्वतंत्रता से होने वाले परिवर्तन का आकलन होता है। चूँकि सामाजिक व्यवस्था किसी एक व्यक्ति की इच्छा पर तो संचालित नहीं होती है। व्यवस्था बनाए रखना एक सामूहिक निर्णय होता है। इसलिए सामाजिक व्यवस्था का कानून और प्रकृति के कानून में भिन्नता होने के बाद भी "सामाजिक व्यवस्था" विज्ञान के कार्यक्षेत्र की सीमा के अंतर्गत आती है। और अंग्रेजी में मनुष्य के स्वाभाव को नेचर (Nature) ही कहते हैं। मानव जाति और विज्ञान का अब तक का सम्पूर्ण विकास इसी शर्त की उपस्थिति में प्रयोग विधि द्वारा संभव हुआ है।
मूल रूप से इस शर्त की उपस्थिति में प्रयोग विधि का उपयोग किया जाता है। परन्तु याद रहे प्रयोग विधि के भी चार अलग-अलग रूप होते हैं। जिनका उद्देश्य उसको उपयोग में लाने वाले व्यक्ति अपने व्यवसाय (खोजी, विद्यार्थी, आम नागरिक, आविष्कारक) द्वारा निर्धारित करते हैं। कानून और व्यवस्था की उपस्थिति में वैकल्पिक साधनों और युक्तियों की खोज तथा कारण का घटना, प्रभाव और लक्षण के साथ संबंध खोजा जाता है। जल और वायु (ऑक्सीजन, नाइट्रोजन या कार्बन डाई ऑक्साइड) चक्र का अध्ययन भी इसी शर्त की उपस्थिति में किया जाता है। सामाजिक व्यवस्था के अंतर्गत आने वाली अर्थव्यवस्था और शासन/प्रशासन व्यवस्था में भी विज्ञान कार्य करता है। क्योंकि इस क्षेत्र में भी हम आंकड़ों के आधार पर (विकास आदि के विषय में) भविष्यवाणियां कर सकते हैं।
विज्ञान = भौतिकी, रासायनिकी, जैविकी, खगोलिकी, यांत्रिकी आदि3. क्रियाविधि और प्रणाली : मूलरूप में इस शर्त की उपस्थिति में परीक्षण विधि का उपयोग किया जाता है। आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु नई प्रणालियों के निर्माण, उनमें परिवर्तन और क्रियाविधि का निर्धारण किया जाता है। समस्याओं के निदान खोजने में इस शर्त की उपस्थिति अनिवार्य होती है। प्रणाली कैसे काम करेगी/करती है ? प्रणाली का प्रकार ? उस प्रणाली की उपयोगिता को निर्धारित करता है। अर्थात तकनीकी विकास में सैद्धांतिक क्रियाविधि की भूमिका निर्धारित की जाती है। जो प्रणाली के प्रकार को परिभाषित करती है। मुख्य रूप से यांत्रिकी, श्वसन और पाचन तंत्र तथा आवश्यकताओं की पूर्ति हेतू विकसित किया गया तंत्र का अध्ययन इसी श्रेणी में आता है। इस शर्त की उपस्थिति में हम कंप्यूटर, सभी इलेक्ट्रॉनिक्स तथा मशीनी उपकरण में काम करने वाले विज्ञान का अध्ययन करते हैं। और साथ ही क्रियाविधि के आधार संगत प्रणाली के निर्माण की संभावना को भी निर्धारित करते हैं।
कला = खेलकूद, चित्र, मूर्ति, संगीत, नृत्य, नाटक आदि
विज्ञान + कला = समाजशास्त्र, प्रबंधन, अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, तकनीक, चिकित्सा आदि
इस तरह से हम पाते हैं कि विज्ञान किसी न किसी रूप में हर जगह कार्य करता है। क्योंकि वहां प्रकृति कार्य करती है। और यह प्रकृति विशाल ब्रह्माण्ड को संचालित करने के लिए स्वयं छोटे-छोटे हिस्सों में तंत्रों/व्यवस्था/प्रणालियों में विभक्त हो जाती है। इसके बाबजूद वह "भेद न करने" का अपना गुणधर्म कभी और कहीं भी नहीं छोड़ती है। और इस प्रकार विज्ञान की सबसे महत्वपूर्ण शर्त होती है : "होना"। अर्थात जो है ही नहीं, उसके बारे में विज्ञान संभावना भी नहीं जताता है। फिर चाहे "जो भी हो" वह कृत्रिम हो या प्राकृतिक। वह किसी न किसी रूप में प्रकृति का ही अंग है। और वह किसी न किसी रूप में विज्ञान के कार्यान्वित होने की शर्त को (अवश्य) पूरा करता है।
प्रकृति की सुंदरता
लेखक : अज़ीज़ राय, प्रकाशन की तारीख : मई 13, 2016 | टिप्पणियाँ : 0 एकीकरण, परिभाषित विज्ञान, वैज्ञानिक दृष्टिकोण
दरअसल सुंदरता का अपना कोई मापदंड नहीं है। और चूँकि व्यक्ति के विचार और उसका लेखन हमें आकर्षित करता है। इसलिए हम विचारों और लेखन को भी प्रतिक्रिया के रूप में सुंदर कह देते हैं। क्योंकि देखा गया है कि तब लेखक और पाठक के विचारों में एक रूपता पाई जाती है। एक लेखक के विचार पाठक को अपने लगने लगते हैं।
2. प्रकृति को एक व्यवस्था के रूप में जाना जाता है।
3. प्रकृति सूक्ष्म स्तर से लेकर खगोलीय स्तर तक व्यवस्था बनाए रखती है।
4. प्रकृति व्यवहार में समानता का भाव रखती है।
5. प्रकृति निर्णायक भूमिका भी निभाती है। अर्थात बिना आगाह किये दण्ड देना।
6. हम सिद्धांत देने और उसके आधार पर कार्य करने के लिए पूर्णतः स्वतंत्र हैं। परन्तु (प्रतिक्रिया के रूप में) प्रत्येक सिद्धांत (Theory) की सत्यता का निर्णय प्रकृति के द्वारा किया जाता है।
ईश्वर ने एक बहुत अच्छा अवसर अपने हाथ से जाने दिया। - सर अल्बर्ट आइंस्टीन (प्रश्न : यदि आपका यह सिद्धांत गलत साबित होता है तो ? के जबाब में) यह भेदभाव के बारे में स्पष्ट समझ विकसित करने वाला एक वक्तव्य है, जो यह दर्शाता है कि आइंस्टीन को प्रकृति पर कितना विश्वास था।
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प्रकृति का सौंदर्य : उसकी एक रूपता है। |
ये जो हम अपने चारों और देखते हैं पेड़-पौधे, जीव-जंतु, तारे, ग्रह, उपग्रह इत्यादि। ये प्रकृति नहीं है !! बल्कि इन सभी के बीच के संतुलन और सामंजस्य को प्रकृति कहते हैं। इस संतुलन और सामंजस्य में सौन्दर्य भी है, सामर्थ्य भी है। यहाँ सौन्दर्य का आशय "जिसे हम खोज के दौरान ज्ञात करते हैं और उसके द्वारा भविष्यवाणियां कर सकते हैं" से होता है। जबकि सामर्थ्य का आशय "उस क्षमता या परिस्थिति से है, जिसके द्वारा प्रकृति द्वारा प्रदत्त अर्थात प्राकृतिक चीजों की रचना होती हैं।" हमारा जन्म भी संतुलन का ही परिणाम है कि हम दिखने में वैसे ही हैं जैसे : हमारे अभिभावकसंयोग किसी भी घटना के लिए बहुत महत्व रखता है। प्रकृति भेदभाव करती है कहकर जो उदाहरण दिया जाता है। वह ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के समय का है कि ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के समय पदार्थ और प्रतिपदार्थ समान मात्रा में थे। प्रकृति ने उसे नष्ट करके भेदभाव किया है ! चूँकि प्रतिपदार्थ अभी तक नहीं खोजा गया है। इसलिए प्रकृति के ऊपर भेदभाव का आरोप लगाना गलत है। और दूसरी ओर संभव है कि प्रति-ब्रह्माण्ड भी अस्तित्व रखता हो ! जब इन दोनों का संयोग होगा तब सम्पूर्ण पदार्थ नष्ट होकर ऊर्जा में परिवर्तित हो जाएगा।
प्रोफेसर हार्डी के अनुसार सुंदरता की निम्न दो शर्तें हैं :
1. कम से कम उपयोगिता।
2. और अधिक से अधिक विचार जगत से सम्बन्ध।
वैज्ञानिक विधियों का विकास
लेखक : अज़ीज़ राय, प्रकाशन की तारीख : मई 08, 2016 | टिप्पणियाँ : 0 वैज्ञानिक कार्यविधियाँ, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, शिक्षा और समाज, VAIGYANIK VIDHIYAN
प्रेक्षण विधि : खगोलिकी, विज्ञान की सबसे प्राचीन शाखा है। जिसका संबंध ऋतु विज्ञान से भी होता है। इसलिए कहा जा सकता है कि वर्षों तक ग्रह, उपग्रह और तारों का निरन्तर अध्ययन करने से जिस विधि का प्रादुर्भाव हुआ वह प्रेक्षण विधि ही थी। विज्ञान की इस विधि में प्रेक्षक के रूप में मनुष्य कार्यविधि में शामिल नहीं होता है। और न ही वह किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप करता है। वह केवल घटना का अध्ययन करने के उद्देश्य से घटना का अवलोकन करता है। घटना की शुरुआत, घटकों की मौजूदगी और घटना के दोहराव का अध्ययन करना इस विधि की पहचान होती है। जब घटना का दोहराव होता है। तब प्रेक्षण के दौरान हमें घटना से संबंधित जानकारी मिलती है। घटकों की बारम्बार उसी मौजूदगी से वह जानकारी, तथ्य में परिवर्तित हो जाती है। तथा घटना का एक निश्चित समयांतराल के बाद दोहराव होते रहना। किसी व्यवस्था की ओर संकेत होता है। जो नियमित (नियमों में बंधी) और व्यवस्थित प्रणाली के अस्तित्व के बारे में जानकारी देता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि प्रेक्षण विधि के द्वारा घटना की जानकारी, तथ्यों और नियमों को जाना जा सकता है। परन्तु सिर्फ इस विधि के द्वारा संबंधित तंत्र या प्रणाली के सिद्धांतों की व्याख्या करना असंभव होता है। फलस्वरूप वैज्ञानिक विधियों में विकास की आवश्यकता को महसूस किया जाने लगा।
अब प्रश्न यह उठता है कि क्या सिर्फ व्यवस्थित तंत्र/प्रणाली में ही विज्ञान कार्य करता है ? अर्थात जो घटनाएं एक निश्चित समयांतराल के बाद नहीं घटती हैं या वे कभी-कभी घटती हैं तो वहां कौन सी वैज्ञानिक विधि कार्य करती है ? क्या वहां प्रेक्षण विधि कार्य करती है ?एक निश्चित समयांतराल के बाद घटना का दोहराव नही होना या कभी-कभी घटना का घटित होना। ऐसे कार्यक्षेत्र में भी विज्ञान कार्य करता है। परन्तु ऐसे कार्यक्षेत्रों में एक शर्त और जुड़ जाती है कि "यदि एक समान घटकों का (घटना के बाद) परिणाम एक समान होता है तो।" यह विज्ञान की एक अभिधारणा है। इस अभिधारणा का क्रियान्वयन विज्ञान के कार्यक्षेत्र होने की मुख्य शर्तों में से एक है। परन्तु इसके लिए जरुरी है कि ऐसी घटनाएं प्रमाणित भी (अर्थात घटकों, उसकी मात्रा तथा प्रभाव की सही-सही जानकारी) होनी चाहिए ! जिसके लिए हमें प्रयोग विधि की आवश्यकता होती है। इस विधि के द्वारा प्रयोगकर्ता घटनाओं का दोहराव कर सकता है।
प्रयोग विधि : प्रयोगकर्ता के रूप में मनुष्य प्रयोग विधि में शामिल होता है। वह आवश्यकतानुसार प्रयोग के दौरान घटना को घटक की मात्रा या भिन्न घटक के द्वारा प्रभावित भी कर सकता है। इस विधि के द्वारा प्रकृति के सिद्धांतों को भी समझा जा सकता है। प्रकृति कैसे कार्य करती है ? घटना क्यों घटित हुई ? आदि प्रश्नों के उत्तर इस विधि के द्वारा जाने/समझे जा सकते हैं। जबकि प्रेक्षण विधि में यह सब संभव नहीं होता है। प्रेक्षण विधि के द्वारा सिर्फ घटना का अध्ययन किया जा सकता है। और भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं की भविष्यवाणी की जा सकती है। जबकि प्रयोग विधि के द्वारा घटना में परिवर्तन करना भी संभव होता है।
सिर्फ देखने, सुनने और छूने से प्राप्त होने वाली जानकरी सही नहीं होती है। मनुष्य भ्रमित भी हो सकता है। आज हमारे पास मानव जाति के इतिहास के बहुत से उदाहरण हैं। जिसकी वास्तविकता हमें प्रयोग विधि के द्वारा बाद में ज्ञात हुई है। इसलिए प्रेक्षण विधि से ज्ञात होने वाली जानकारी गलत भी हो सकती है। और तब इन जानकारियों के वैज्ञानिक विश्लेषण से ज्ञात होने वाले तथ्य और नियम भी गलत होंगे। इसलिए यह कहना सही है कि प्रयोग विधि, प्रेक्षण विधि से उन्नत होती है। क्योंकि प्रयोग विधि न सिर्फ प्रमाण उपलब्ध कराती है बल्कि भ्रम (देखे, छुए और सुने) से वास्तविकता को पृथक करना इस विधि की विशेषता होती है।
परीक्षण विधि : प्रयोग विधि का सबसे बड़ा महत्व यह है कि इस विधि से ज्ञात तथ्यों और नियमों के द्वारा वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास होता है। क्योंकि यह विधि कारण और क्रियाविधि को प्रमाणित करती है। इसलिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण के द्वारा इस विधि से ज्ञात तथ्यों, नियमों और सिद्धांतों का उपयोग तकनीक विकसित करने में किया जा सकता है। संगतता के आधार पर तकनीक विकसित की संभावना खोजी जा सकती है। और काफी हद तक तकनीक का सैद्धांतिक पहलू भी निर्धारित किया जा सकता है। परन्तु यदि प्रयोग के परिणाम के आधार पर हम गलत निष्कर्ष पर पहुँच जाते हैं तो तकनीक का सैद्धांतिक पक्ष भी गलत हो जाता है। जिससे तकनीक विकसित करना संभव नहीं होता है। तब हम निश्चित तौर पर कह सकते हैं कि प्रयोग विधि से ज्ञात होने वाले तथ्य, नियम और सिद्धांत भी गलत हो (सक) ते हैं। तब जिस विधि का विकास हुआ उसे परीक्षण विधि कहते हैं। यह विधि प्रयोग विधि से अधिक उन्नत होती है। क्योंकि इस विधि से खोजे गए ज्ञान की उपयोगिता और प्रमाणित दोनों सिद्ध होती है।
वैज्ञानिक विधियों का विकास प्रेक्षण विधि (अध्ययन करने) से परीक्षण विधि (खोज को उपयोग में लाने) की ओर हुआ है। ध्यान रहे "प्रयोग विधि में अवलोकन भी किया जाता है। तथा परीक्षण विधि में तकनीक को बारम्बार परखा जाता है।" अर्थात अप्रत्यक्ष रूप से ही सही प्रेक्षण विधि का प्रयोग विधि से और प्रयोग विधि का परीक्षण विधि से गहरा संबंध होता है। और ये एक-दूसरे से अधिक उन्नत होती हैं।
लेख को पढ़ते वक्त ध्यान में रखने योग्य बिंदु :
1. प्रयोग विधि का परिणाम क्रियाविधि पर निर्भर करता है। जबकि उनका निष्कर्ष मानव की समझ (वैज्ञानिक दृष्टिकोण) पर निर्भर करता है। अर्थात एक ही परिणाम से भिन्न-भिन्न निष्कर्ष भी निकाले जा सकते हैं। यह प्रयोग विधि की एक कमी है।
2. प्रयोग विधि का परिणाम सदैव परिभाषित भौतिक राशि का आंकिक मान होता है। यह इस विधि की सबसे बड़ी विशेषता है।
4. व्यवहारिकता, प्रमाणिकता और उपयोगिता क्रमशः प्रेक्षण, प्रयोग और परीक्षण विधि की विशेषता होती है। जिसे हम प्रकृति में कार्यान्वित होते देख सकते हैं।
प्रयोग के प्रकार
लेखक : अज़ीज़ राय, प्रकाशन की तारीख : मई 04, 2016 | टिप्पणियाँ : 1 एकीकरण, तकनीकी, परिभाषित विज्ञान, विश्लेषणात्मक तर्क, वैज्ञानिक कार्यविधियाँ, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, शिक्षा और समाज, VAIGYANIK VIDHIYAN
- मनुष्य प्रयोगकर्ता के रूप में कार्यविधि में शामिल होता है। यह इस विधि की प्रमुख आवश्यकता है। अर्थात प्रयोग की शुरुआत कब करनी है ? यह प्रयोगकर्ता की इच्छा पर निर्भर करता है।
- इस विधि का उपयोग एक सीमा तक किसी भी समय (सुबह, दोपहर, शाम या रात), किसी भी स्थान और किसी भी व्यक्ति (आयुवर्ग या स्त्री-पुरुष) द्वारा किया जा सकता है।
- प्रयोग विधि को उसके दोहराव के लिए जाना जाता है।
- इस विधि का उपयोग विज्ञान में प्रकृति का अध्ययन अर्थात खोज करने तथा प्रौद्योगिकी में उन खोजों के ज्ञान को उपयोग में लाने के लिए किया जाता है।
- यह विधि प्रचलित ज्ञान और खोजे गए ज्ञान को प्रमाणित करने में सहायक सिद्ध होती है।
- मनुष्य की इंद्रियों से निर्मित भ्रम में से वास्तविकता को जानना इस विधि के द्वारा आसान होता है।
- जिन प्रयोगों का उपयोग खोज करने के लिए किया जाता है। इन प्रयोगों के दोहराव करने से भौतिक राशियों के रूप में हमें कुछ आंकड़े (मान) प्राप्त होते हैं। जिन आंकड़ों का वैज्ञानिक विश्लेषण करके हम किसी निष्कर्ष तक पहुँचते हैं। यह पहले प्रकार के प्रयोग कहलाते हैं। जिनके माध्यम से हम विज्ञान में ऐसे निष्कर्षों की खोज कर पाते हैं। जिनकी जानकारी हमें इन प्रयोगों के पहले तक नहीं होती है। मूल रूप से वैज्ञानिक समुदाय खोज करने के लिए इन प्रयोगों का उपयोग करता है।
- अब तक के ज्ञात सिद्धांतों, नियमों, तथ्यों और जानकारियों को प्रमाणित करने में इन प्रयोगों का उपयोग किया जाता है। तथा इन प्रयोगों के द्वारा पूर्व में घटित घटनाओं के प्रति समझ विकसित की जाती है। इन प्रयोगों के द्वारा खोज (पहले वाले प्रयोग) के दौरान आंकड़े एकत्रित करने में होने वाली त्रुटि और कार्यविधि के सिद्धांत की गलती की पहचान की जाती है। ताकि दोबारा प्रयोगों में सुधार के बाद नए/परिवर्तित आंकड़े प्राप्त किये जा सकें। इन प्रयोगों को करने से पहले ही हमारे पास प्रयोग की आवश्यक सामग्री, प्रायोगिक सिद्धांत, उसकी कार्यविधि, सावधानियां और संभावित आंकड़े और निष्कर्ष की जानकारी पहले से उपलब्ध होती है। मूल रूप से विद्यार्थी वर्ग प्रमाण जुटाने में इन प्रयोगों का उपयोग करता है।
- मूल रूप से मानव समाज का प्रत्येक व्यक्ति अपने दैनिक जीवन में सुधार के लिए इन प्रयोगों का उपयोग अपने-अपने स्तर पर करता है। और अपनी सोच को समय-समय पर बदलता रहता है। इस प्रकार के प्रयोग का अर्थ "कर-करके सीखने" से होता है। इसलिए विश्व में देश-काल पर आधारित अनेकों व्यवस्थाओं का जन्म होता है। ये व्यवस्थाएं सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक आधार पर अलग-अलग होती हैं। चूंकि ये व्यवस्थाएं किसी एक व्यक्ति पर निर्भर नहीं करती है। इन व्यवस्थाओं के निर्माण के पीछे पीछे सभी मनुष्यों का अपना-अपना स्वभाव/अनुभव काम करता है। इसलिए सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक व्यवस्थाएं विज्ञान के कार्यक्षेत्र के अंतर्गत आती हैं।
- मूल रूप से आविष्कार करने के लिए इन प्रयोगों का उपयोग किया करता है। इसे परीक्षण (Testing) विधि भी कहते हैं। इन प्रयोगों के द्वारा तकनीक विकसित होती है। और समय-समय पर नई आवश्यकताओं की पूर्ति के उद्देश्य से तकनीक और भी उन्नत की जाती है। तीसरे और चौथे प्रकार की प्रयोग विधि प्राचीन है। ये दोनों ही प्रकार प्रौद्योगिकी के विकास में सहायक होते हैं। जबकि पहले और दूसरे प्रकार के प्रयोग विज्ञान के विकास (खोज) में सहायक होते हैं।
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